गुरु महिमा
गुरु महिमा
गुरु पूर्णिमा दिवस शुभ प्यारा गुरु पूजन का आया।
पावन परंपरा भारत की याद दिलाने आया।।
यूँ तो गुरु के प्रति श्रद्धा का दिवस नित्य होता है।
पर प्रतिवर्ष विशेष कार्य का दिन-विशेष होता है।।
पावन परंपरा भारत की याद दिलाने आया।।
यूँ तो गुरु के प्रति श्रद्धा का दिवस नित्य होता है।
पर प्रतिवर्ष विशेष कार्य का दिन-विशेष होता है।।
जय विद्यावारिधि की,जय हो स्नेहा-सुधा-सागर की।
जय हो प्रेम-निलय,करुणाकर, सदगुण-रत्नाकर की।।
विधि-हरि-हर तीनों की है प्रतिमूर्ति एक सद्गुरु ही।
साक्षात् परब्रह्म की करता पूर्ति एक सद्गुरु ही।।
जय हो प्रेम-निलय,करुणाकर, सदगुण-रत्नाकर की।।
विधि-हरि-हर तीनों की है प्रतिमूर्ति एक सद्गुरु ही।
साक्षात् परब्रह्म की करता पूर्ति एक सद्गुरु ही।।
गुरु से बड़ा न कोई जग में,गुरु गुरुतर-गुरुतम है।
शिष्य सदा ही लघु है, लघुतर गुरु से,लघुतम है।।
निज गुरुत्व से गुरु लघु को भी गुरुतम कर देता है।
और चित्तदर्पण से काई हर गुण भर देता है।।
शिष्य सदा ही लघु है, लघुतर गुरु से,लघुतम है।।
निज गुरुत्व से गुरु लघु को भी गुरुतम कर देता है।
और चित्तदर्पण से काई हर गुण भर देता है।।
ऐसे सद्गुरुदेव चरण में मेरा कोटि नमन है।
वही अग्नि-जल-धरा-वायु है,वही असीम गगन है।।
अध्यापन-अध्ययन हमारे जीवन का बस व्रत हो।
दें आशीष सदा मन मेरा ज्ञानार्जन में रत हो।।
वही अग्नि-जल-धरा-वायु है,वही असीम गगन है।।
अध्यापन-अध्ययन हमारे जीवन का बस व्रत हो।
दें आशीष सदा मन मेरा ज्ञानार्जन में रत हो।।
विरत न हों कर्तव्य-मार्ग से, विपुल ज्ञान पा जावें।
हरि-पद-कमल-भ्रमर बन कर हम भवसागर तर जावें।।
क्योंकि बिन पावन गुरुपद-सरोज-आश्रय के जग में।
दूर ज्ञान-अर्जन है,सुख है, पग न पड़े सन्मग में।।
हरि-पद-कमल-भ्रमर बन कर हम भवसागर तर जावें।।
क्योंकि बिन पावन गुरुपद-सरोज-आश्रय के जग में।
दूर ज्ञान-अर्जन है,सुख है, पग न पड़े सन्मग में।।
सद्गुरु ही निज कृपा-सुधा-धारा बरसा-बरसा कर।
जीवन-उपवन को विकसित करते हरषा- हरषा कर।।
तब ही जीवन-वृक्ष पुष्प-फल-पल्लव-युत होता है।
और ज्ञान-सुख-प्रेम-कीर्ति के बीज यहां बोता है।।
गुरु से दिशा,प्रेरणा पाकर आगे बढ़ सकते हैं।
और भूमि से उठकर उन्नत चोटी चढ़ सकते हैं।।
पद्य-पुष्प ये चढ़ा रहा हूँ ,दे ही क्या सकता हूं?
ले ही सकता हूं ,जितना चाहूँ ले ही सकता हूँ ।।
जीवन-उपवन को विकसित करते हरषा- हरषा कर।।
तब ही जीवन-वृक्ष पुष्प-फल-पल्लव-युत होता है।
और ज्ञान-सुख-प्रेम-कीर्ति के बीज यहां बोता है।।
गुरु से दिशा,प्रेरणा पाकर आगे बढ़ सकते हैं।
और भूमि से उठकर उन्नत चोटी चढ़ सकते हैं।।
पद्य-पुष्प ये चढ़ा रहा हूँ ,दे ही क्या सकता हूं?
ले ही सकता हूं ,जितना चाहूँ ले ही सकता हूँ ।।
चंचल-चित्त शिष्य लघु है अपराध किया करता है।
गुरु गंभीर,महान न उस पर हृदय दिया करता है।।
दोष-बोध करवाकर सब दोषों को हर लेता है।
स्नेह-सुधा से सिक्त हृदय कर सद्गुण भर देता है।।
गुरु गंभीर,महान न उस पर हृदय दिया करता है।।
दोष-बोध करवाकर सब दोषों को हर लेता है।
स्नेह-सुधा से सिक्त हृदय कर सद्गुण भर देता है।।
रचनाकार
उमाशंकर द्विवेदी, देवरिया उत्तर प्रदेश
9580551400
उमाशंकर द्विवेदी, देवरिया उत्तर प्रदेश
9580551400
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