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मां

माँ

हाथों में देह रह गयी और माँ गुजर गयीं
नीड बनाने वाली चिड़िया घरौंदा छोड़ गयी
हाथों में निष्प्राण थी माँ मेरे
एक चीख कंठ से गूंजी
पिता जी भी दौड़ कर पास आये
पिता जी ने साँसें फूकने की असफल कोशिश की
लेकिन शायद जीवन की डोरी टूट चुकी थी
माँ गुजर चुकी थी, माँ गुजर चुकी थी
गोद उठाये हम दोनों भागे गाड़ी तक आये
अब उसी सीट पर थीं माँ
जिस पर बैठा करती थीं
शान्त थी माँ लेकिन सदा की तरह नहीं
अधीर था मैं हमेशा की तरह
फिर शुरू हुई परिक्रमा घर से अस्पताल की
और घर आकर परिक्रमा पूर्ण हुई
लौट आई थी माँ साथ हमारे
बस माँ का जीवन साथ नहीं था
संभाले थे पिता निर्जीव हुई माँ को
अब न जाने किस लोक में थे पिता जी
किसी गहन विषाद में खोये हुए से
जाने कितनी शक्ति थी आज मुझमें
न मन घबराया, न ही मेरे हाथ काँपे
अब लेटी थी माँ भूमि पर उसी आँवले के नीचे
जिसे अपने हाथों से रोपा और लाड़ से पोषा था
आने वाले सब लोग आ रहे थे 
ऐसा पहली बार हुआ जब किसी के घर आने पर माँ चुप थीं


तैयारियाँ होने लगी थीं अब अंतिम यात्रा की
कितने निष्ठुर हैं संस्कार इस जग के
जिसके साहस के बल पर
मैंने बाइक, कार चलाना सीखा
आज उसी को मुझे बांस के विमान पर लिटाना है
जिसकी उंगली पकड़-पकड़ चलना सीखा मैंने
उसे ही कांधो पर लड़खड़ाये बिना लेकर जाना है
अब आरती उतारी जा रही थी माँ की
मुझको भी बुलाया गया
जो सदा मेरी नज़रें उतारा करती थी
आज उसी की अंतिम बार मैंने आरती उतारी
मुझे यह तो याद नहीं माँ उंगली तेरी थामे
कितनी बार गिरा मैं कितनी बार लड़खड़ाया
परंतु यह जीवन भर याद रहेगा कि
कंधो पर लेकर तुझको मेरे पाँव नहीं काँपे
गाँव के बाहर अब माँ की अर्थी को 
एक जगह कंधो पर से गया उतारा
जिसने सारे जीवन थे पकवान खिलाये
अब उसको ही आटे, तिल के पिंड दिये जाने थे
हाय अब क्या माँ उनको खायेगी?? 
जिसके सीने से लग मैंने सोना सीखा था
आज वही माँ कितनी गहरी नींद मे सोई है
इतनी गहरी, इतनी गहरी नींद
की मेरी पीड़ा का भी उसको भान नहीं
ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ
मैं हूँ पीड़ा में और माँ चुप रह जाए
जिसने बरसों तक मुझको नहलाया
प्रथम बार,अंतिम स्नान,उसको मुझे कराना है
जाते- जाते माँ ने बेटे से,यह कर्तव्य भी करवाया
पलकों पर ले ख़ारा जल,अंजुरि भर-भर यमुना जल
गंगा की साध रही अधूरी
मैंने और पिता जी ने माँ को स्नान कराया
जिसने जीवन देकर मुझको सारे नातों से बाँधा था
अब उसके ही सारे बंधन सारे धागे तोड़े मैंने
प्रथम बार जिसने मुझको कलम पकड़ना सिखलाया था
कब सोचा था मैंने ऐसा भी पल आयेगा
यमुना मैया की बालू से ही अब 
माँ की देह पे मुझको राम नाम लिखना होगा
ये जीवन भी न, कैसे- कैसे रंग दिखाता है
लाख गलतियाँ करके भी मैं 
जिसके आँचल में छुप जाता था
जो मुझको सारी बाधाओं सारे तापों से 
 ममता के आँचल में ढक लेती थी
आज उसी को अपने हाथों से 
अग्नि की भेंट चढ़ाना है
आज उसी को अपने हाथों से
चिता की भेंट चढ़ाना है
लिटाया गया माँ की देह को लकड़ियों पर
और पिता जी से मुखाग्नि दिलाई गई
धीरे-धीरे लकड़ियों के साथ जलने लगा शरीर
जल रही देह थी सारी बस सीने पर लपटें थोड़ी मद्धम थीं
अंग-अंग जलकर भी आँचल जलने को तैयार नहीं था
भूखा था बेटा बीती रात से शायद इसीलिए
माँ के आँचल में दूध उतर आया होगा
फिर कुछ क्षण लड़कर ममता का आंचल हार गया
पंचतत्व से बना शरीर पंचतत्वों में समा गया
कुछ क्षण बैठे- बैठे मन में विचार आया
मानव की अंतिम मंजिल एक यही है
केवल यह ही है जीवन का अंतिम सत्य
किंतु यहाँ तक आने को कितने भटकाव हैं जीवन के
फिर लौट आये हम माँ के बिना उसी घर में
जिस घर के कण- कण को माँ ने अथक श्रम से बाँधा था
पूछ रहे हैं आह्लाद सभी,घर के सूनेपन से
पूछ रही हैं देहरी, छत, दीवारें घर की
अब कौन संभालेगा बिखरे घर को
कौन पुकारेगा घर में सुबह- सवेरे भगवन् को
बतलायेगा कौन सभी को?किसको क्या- क्या करना है? 
कब खाना है?पढ़ना है?कब तक फोन चलाना?कब सोना है? 
कौन दुलारेगा?डांटेगा?कौन स्नेह और अधिकार जतायेगा
माँ तू ही जग में लाई तूने मुझको संसार दिया
सारा जग मिलकर भी तेरा खालीपन न भर पायेगा
जो कल तक घर,दीवारों को संभाला करती थी
इक दीवार पे उसकी फोटो पर माला चढ़ी हुई है
माँ का बेटू जिसने सोना सीखा था थपकियों से
सोते-सोते माँ को याद कर आकुल हो जाता है
तेरे आँचल में जीवन की अब तक यात्रा गुजरी
नहीं रूकूँगा मैं भी चलता जाऊंगा
चलना तो होगा ही चाहे पथ आसान रहे न
शायद थोड़ा सा मैं भी बदल जाऊंगा
अधिकार मिटेंगे सारे कंधों पर उत्तरदायित्व बढ़ेंगे
अपने सारे कर्तव्य निभाकर मैं भी यात्रा पूर्ण करूँगा
माँ तुम राह देखना, माँ तुम बाट जोहना मेरी
अपनी सारी पीड़ाएं अपने साथ ही लेकर
अब गोद में आकर ही मैं विश्राम करूँगा
अब गोद में आकर ही मैं विश्राम करूँगा
अब गोद में आकर ही मैं विश्राम करूँगा...

✍️ शुभम मिश्र, उन्नाव

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