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llव्यथाll

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  स्नेहिल अखियन से बहे धार,
अविरल,निश्चल पल -पल,तार-तार।
मन छिन्न-भिन्न विकृत भया,
आत्मा पर होवें कई वार।    
कैसे कपटी लोगो ने बुनी,
ताने -बाने की माया जाल।
निकले कैसे सोचें पल-पल,
दलदल जस यह बुनी तार।
निष्कपट हृदय विक्षिप्त हुवा,
लख धोखे,छल,द्वेष,अनाचार।
कैसे किसको अपना माने,
अपनों में छिपे जो बेगाने।
रब भेजे साँचा इक बना, फिर अंतर क्यू है सबमे यहां।
क्यू? पीड़ा अंतर्मन को दे
खुशियां सबको मिलती है सदा।
जिस ओर देखूँ बस यही दिखे,
दुनियां की भीड़ सही न दिखे।
हे जग पालक,हे रखवाले,
कुछ तो मन को भर्मित कर डाल।
कलुषित समाज की दशा बदल,
इंसानियत कुट के भर डाल।।
ना कोई बहन,बेटी माँ कहीं रोये,
ना बृद्ध,अपाहिज भारी हो।
मन को करुणा का सागर कर,
इक प्रेम भरा प्रभु जगत बना।
अँखियन में आंसू तृप्ति भरे,
बस अधरों पर मुस्कान सजे।
स्नेहिल स्वभाव में रत सब हो.
बस अपने पन का एहसास मिले।।

      ✍ रचनाकार :
     ममताप्रीति श्रीवास्तव
     स0अ0, प्रा0 वि0 बेईली
     बड़हलगंज,  गोरखपुर
                       

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