सिमटते संस्कार
संस्कारों की दुनिया सिमटी,
खाई ऐसा खाँच रही है।
कोयल मौन को पी रही,
मैंना चिट्ठी बाँच रही है।।
बेजा बोल का पोषण पाते,
सोशल और इ-मीडिया से।
ज्ञानी बन सब बैठे हैं,
गूगल और विकिपीडिया से।।
स्वानुकूल हैं तर्क हवाले,
संस्कृति बेचारी लचर हुई।
बुद्धिमता अब रही नहीं,
बुद्धि बेशक प्रखर हुई।।
नैतिकता की चादर मैली,
बाहर धवल कलेवर है।
भीतर रस्सी जल चुकी,
पर ऐंठन वाला तेवर है।।
दीनों के अगुवा कहलाते,
चाहे न आंँसू पोंछा हो।
बड़े-बड़े हैं बोल निराले।
बेशक करतब ओछा हो।।
✍️अलकेश मणि त्रिपाठी "अविरल"(सoअo)
पू०मा०वि०- दुबौली
विकास क्षेत्र- सलेमपुर
जनपद- देवरिया (उoप्रo)
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