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तुम्हारा साया

"तुम्हारा साया"

कुछ अनकही सी आवाजों में,
कुछ प्यारा सा महसूस किया।
आँखें मेरी खुली नहीं,
पर मन में एक साया बना लिया।।

जब जब तुमने मुझे पुकारा,
मेरा मन खिल जाता था।
बन्द आँखों की दुनियां में,
वही साया सा बन जाता था।।

धीमें से एक दिन आँख खुली,
मुस्कराते तुम्हें पाया था।
इस धुन्धुली सी दुनिया में,
दो सायों को ही समझ पाया था।।

एक की धरती सी फैली ममता थी,
दूजे का छितिज सा फैला प्यार था।
इन दो हाथों ने समेट लिया,
जैसा सारा संसार था।।

जिस दिन चलने को खड़ा हुआ ,
पहला कदम बढ़ाया था।
नन्हे से तन की काया के संग,
चला बड़ा सा साया था।।

तुम्हारे प्रेम की छाँव में,
यों ही धीमें धीमें बढ़ता रहा।
सुख दुख से भरी इस दुनिया में,
हर दुख पीड़ा से दूर रहा।।

आँखों में तुम्हारी खुद को बढ़ता देख,
में खुद पर इतराता था।
जब जब चलता था आगे,
साथ तुम्हे ही पता था।।

एक दिन छुड़ा कर हाथ तुम्हारा,
कुछ दूर जब आगे निकल गया।
ठोकरें कुछ ऐसी लगीं ,
मुश्किलों में घिर सा गया।।

आज समझ पाया में इतना,
कैसे हर दुख से दूर रहा।
छाँव तले हर पल तुम्हारी,
तपती दोपहर से दूर रहा।

बिना धूप के तन पर पड़े,
कैसे साया बन जाता था।
ये मेरा तो कभी बना ही नही,
जो बना तुम्हारा साया था।।

रचनाकार-
चन्द्रहास शाक्य
सहायक अध्यापक
प्रा0 वि0 कल्याणपुर भरतार 2
बाह आगरा

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