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रिश्ते

रिश्ते पहचान अपनी हैं खोने लगे,
बाप, बेटों पर अब बोझ होने लगे।

ख़ुद को नज़दीक सबसे बताते थे जो,
आज उतने ही वो दूर होने लगे।।

क्या करें जब सहारा कहीं न मिला,
लाश ख़ुद की, अब ख़ुद ही वो ढोने लगे।

उनकी हालत पर अब मुस्कुराते हैं सब,
जिनकी हालत पे पत्थर भी रोने लगे।

अपनी पलकें भी आँखों में चुभती हैं अब,
ख़्वाब आँखों में गर हम संजोने लगे।

कोई सुनता नहीं अब किसी की यहाँ,
रिश्ते सारे सभी को हैं बौने लगे।

आज कैसे यक़ीन उस पर 'राहुल' करे,
पीठ में कल जो खंज़र चुभोने लगे।

लेखक :

✍  राहुल शर्मा

सहायक अध्यापक
पूर्व माध्यमिक विद्यालय कुम्भिया
शिक्षा क्षेत्र-जमुनहा,श्रावस्ती(उ०प्र०)

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