आया जाड़ा हाड़ कँपाने
अँगड़ाई ले रही प्रात है,
कुहरे की चादर को ताने।
ओढ़ रजाई पड़े रहो सब,
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।
तपन धरा की शान्त हो गयी,
धूप न जाने कहाँ खो गयी।
जिन रवि किरणों से डरते थे,
लपट देख आहें भरते थे।
भरी दुपहरी तन जलता था,
बड़ी मिन्नतों दिन ढलता था।
लेकिन देखो बदली ऋतु तो,
आज वही रवि लगा सुहाने।
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।
गमझा भूले मफ़लर लाये,
हाथों में दस्ताने आये।
स्वेटर टोपी जूता मोजा,
हर आँखों ने इनको खोजा।
सैंडिल रख दी अब बक्से में,
हाफ शर्ट भी सब बक्से में।
अलमारी में टँगे हुए वो,
बाहर निकले कोट पुराने।
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।
लइया पट्टी मूँगफली हो,
ताजे गुड़ की एक डली हो।
गजक बताशे तिल के लड्डू,
भूल गए सब लौकी कद्दू।
मटर टमाटर गोभी गाजर,
स्वाद भरें थाली में आकर।
कड़क चाय औ गरम पकौड़ी,
जाड़े के हैं यार सयाने।
ओढ़ रजाई पड़े रहो सब,
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।
लेखक :
✍ डॉ0 पवन मिश्र
कानपुर
कर्म से अध्यापक हूँ। मन के भावों को टूटे फूटे शब्दों की सहायता से काव्य रूप में उकेरने का प्रयास करता हूँ।
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