मन की अनुभूति
बालकपन की सहज अनुभूति,
प्रेम ममता है स्वीकारती।
आहिस्ता चलकर आये तो भी,
जाते जाते है सीख देती ।
कभी हठ कभी बालकपन ,
अबोध शिशु धीरे धीरे यूँ ही बढ़े।
जैसे माली अपने उपवन की,
नित लता बेल हरपल चढ़े।
प्रेम ममता है स्वीकारती।
आहिस्ता चलकर आये तो भी,
जाते जाते है सीख देती ।
कभी हठ कभी बालकपन ,
अबोध शिशु धीरे धीरे यूँ ही बढ़े।
जैसे माली अपने उपवन की,
नित लता बेल हरपल चढ़े।
फिर पुष्प खिले जैसे वैसे ही,
बाल सुगंध भी रंग लाये ।
अपनी बगिया का मालिक तब,
अंतसतल से खुश हो जाए ।
बाल सुगंध भी रंग लाये ।
अपनी बगिया का मालिक तब,
अंतसतल से खुश हो जाए ।
उसकी सुगंध मद मस्त पवन,
इत उत विखेरती जाती है
उसकी लगन, मेहनत,स्नेह सब,
जुड़ जुड़ कर याद दिलाती है।
अपने मोल से ज्यादा उसके,
मोल का भान जरुरी है ।
जिसको सींचा तन मन धन से,
उसकी उन्नति अब पूरी है।
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