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अकेला चला हूं मैं

अकेला चला हूं मैं 
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 अकेले चला हूं मैं
 दूर तक चला हूं मैं। 
 न कोई संगी न साथी ,
 अकेले पतवार  थामे चला हूं मैं।
 डूबने का डर नहीं ,हारने का गम नहीं थकने का नाम नहीं ,बस यूं ही चला हूं मैं।
होठों पर मधुर मुस्कान लिए
 पथ में कांटे हजार चुभे ,कांटों को सहेज कर,
 फूल बनाने चला हूं मैं।
 पथ में मुश्किल हजार होंगी
 इसका एहसास लिए,
 गीत गुनगुनाता चला हूं मैं,
बस यूं ही मुस्कुराता चला हूं मैं।
 मन में साहस अपार लिए
 बस मौजों से लड़ने चला हूं मैं।
मै बेबसी आंखों का
 तारा बनने चला हूं मैं।
  बुझ के भी जो  न बुझ पाये
 वह अंगार बनने चला हूँ मैं ।
 शिक्षा की अलख जगाने  चला हूं मैं।
 बस यूं ही अपने सपनों से , 
  लड़ने चला हूं मैं।
 जीत जाऊंगा मैं
 इस उम्मीद को बांधे चला हूं मैं
 भारत जो सो गया है
उसे गहरी नींद से जगाने चला हूं मैं
 बस यूं ही चला हूं मैं।
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✍️
जितेंद्र यादव ए आर पी 
जसवंतनगर
जनपद-इटावा

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर रचना। प्रेरणास्पद एवं उत्साह वर्धक।आप जैसे अपने कर्म के प्रति समर्पित लोगों के द्वारा निश्चित ही बेसिक स्कूलों की दशा में सुधार होगा।

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