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दीपोत्सव

"दीपोत्सव

निशा घनेरी बीत रही,
शुभ स्वर्णिम आभा छिटक रही।
सकल तिमिर का नाशक बन,
दीपों की लड़ियाँ निखर रहीं।
नव उमंग पुलकित प्रत्यंग,
मन आह्लादित हो प्रखर रही।
जीवन में घोर निराशा  हो,
या विकल ह्रदय सन्ताप भरा।
चहुँ ओर प्रकाशित रश्मि ,किरण,
मन के परत हैँ खोल  रहीं।
हो भाव शून्य या रंग हीन ,
या हारे जीवन से पल क्षण।
दीपों की बाती जल-जल के,
सन्देश नवीन हैं दे सी  रहीं।
निर्जीव ,निरीह बन जीना ना,
ना दुःख विषाद से हीन बनो।
चतुर्दिक छिटकी  रौशनी,
जल के सर्वत्र तिमिर है मिटा रही।
यत्र तत्र सर्वत्र लखुं गर,
नित नवीन सीख़ है मिल जाती।
'रवि'की किरणों जस स्नेहिल,
प्रकाशित मन मन्दिर को है कर रहीं।
दीपों की शीतलता कहती,
मन स्वच्छ ,निर्मल पावन हो।
तन भले सतत् पाषाण बने,
घर,समाज ,देश,  विश्व,
स्नेह पूरित उदगार जले।
ना हो पीड़ा ना कष्ट ह्रदय,
सम्पूर्ण जगत में प्यार रहें।
सम्पूर्ण जगत में प्यार रहें।।।


✍ 
रचनाकार : 
ममताप्रीति श्रीवास्तव
 गोरखपुर

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