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मूक चीख

मैया तोसे कैसे कहूँ, मैं अपने हृदय की पीड़ा।
तूने क्यों है अब उठाया, मेरे अंग-भंग करने का बीड़ा।।
सुन ले हे! मेरी मइया, तुम ही तो मेरी खिवैया।
मुझको क्यों मारे तू, लेती है तू तो मेरी बलैया।।

मेरे वातानुकूलित घर में कोई आया है। गड़सा सा कोई एक दोमुँहा साया है।।
अपने मुँह के दाँतों में मेरा हाथ दबाया है।
दर्द की चुभन को मैंने मन में दबाया है।।
कह नहीं सकती पर मन में पीड़ा तो होती है।
कैसे मेरे अंगों की बोटी-बोटी होती है।।

कैसे तुझ तक मूक चीख पहुँचाऊँ, मैं तो अब हारी जाऊँ।
मेरे मरने पर तू क्यूँ, बाँटे रे मिठइयाँ।।
मेरे बिन कौन भइया को राखी बाँधे रे?
मेरे बिना कौन घर की किलकारी बाजे रे?
हिरनी सी मैं हूँ फिरती, घर के आँगन में फिरकी।
तन-मन तो तेरे संग रहता, पीहर हो या ससुराल।।
यूँ न मुँह मुझसे मोड़ो, मेरा संग यूँ न तोड़ो।
हाथ-पैर-दिमाग अंग-अंग न मेरे तोड़ो।।

पल-पल दिल थमता जाये, गड़सा यूँ काटता जाये।
चेतनता लुटने को है अब न कोई है मेरी सुनवाईयाँ।।
मैं सीता, लक्ष्मी, गायत्री, मैं उमा, महेश्वरी, पार्वती।
मैं शक्ति स्वरूपा सावित्री, मैं ही तो सर्व कार्यकत्री।।

कह कवि 'अनुराग' तुम मेरी पीड़ा को, जन-जन तक पहुँचा देना।
निष्ठुर, अधम, पाषाण शिला तक मेरी 'मूक चीख' पहुँचा देना।।
मानव होगा तो उर उसका कभी
कन्या भ्रूण की न करेगा रुसवाईयाँ।।

लेखक
अनुराग शर्मा
मीरगंज, बरेली।
मो0:- 9917523686

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