दादा-दादी व नाना-नानी दिवस की प्रासंगिकता
जब समाज से संस्कार, सज्जनता, सरलता, सहृदयता, एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव जैसे मानवीय मूल्यों का ह्रास होने लगता है तब हमें इन मूल्यों को बचाये रखने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश शासन ने एक अक्टूबर को अपने बड़े-बुजुर्गों को सम्मान देने के लिए दादा-दादी, नाना-नानी दिवस मनाये जाने का आदेश किया है।
बढ़ती महंगाई, भौतिक सुखों की चाह, सीमित आय, समयाभाव जैसे कारणों से परिवार टूटते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ने ले ली है। आज बच्चे स्वयं को भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें परिवार के बड़े-बुजुर्गों की छत्र-छाया की परम आवश्यकता है। उनके सानिध्य में बच्चा प्रेम, अनुशासन और सम्मान करने का महत्व सीखता है। आज बढ़ते अपराधों का कारण लोगों की दूषित सोच व संस्कारहीन जीवन है। हमारे देश में लगभग सात करोड़ लोग साठ वर्ष से ऊपर हैं। जिनमें लाखों एकाकी जीवन जीने को विवश हैं। वे या तो बच्चों के साथ रहते हुए भी तिरस्कृत हैं या बच्चों के दूर चले जाने पर उपेक्षित हैं।
हम जब अपने बचपन को याद करते हैं तो दादी और नानी की कहानियां, उनके हाथों के बने व्यंजन, हमारी तोतली बोली सुन कर बाबा और नाना के उन्मुक्त ठहाके आज भी कानों में गूँज उठते हैं। उनका सीधा, सरल और संयमित जीवन हमें संतोषी, धैर्यवान और मर्यादित रहने की शिक्षा देता है। उनके विचार और जीवन के प्रति दृष्टिकोण की आज के बच्चों को बहुत आवश्यकता है।
प्रश्न यह है कि क्या वर्ष में एक दिन दादा-दादी, नाना-नानी दिवस मना लेने से हम बच्चों को वही मूल्य और संस्कार दे पाएंगे। यहाँ पर वही अनुकरण करके सीखने का सिद्धांत लागू होता है। बच्चे को कोई बात थोप कर नहीं सिखायी जा सकती। वह हमें वैसा करते हुए देख कर सीखेगा जैसा हम चाहेंगे और करेंगे। बिना नैतिक मूल्यों का समावेश किये शिक्षा अधूरी है। नैतिकता पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर देने या प्रतीकात्मक स्वरूप घोषित कर देने मात्र से नहीं उपजती है। इसके लिए हमें स्वयं आगे आना होगा। अपने बड़े -बुजुर्गों के प्रति संवेदनाएं और सम्मान रखना होगा। उनकी आवश्यकताओं और सुविधाओं की परवाह करनी होगी। घर में उन्हें उचित स्थान देना होगा। स्वस्थ एवं सम्मानजनक संवाद स्थापित करना होगा।
आज अगर हम उन मूल्यों और आदर्शों को सहेज कर रखना चाहते हैं तो ये प्रयास परिवार से ही आरम्भ करने होंगे तभी समाज और देश सुशिक्षित और संस्कारवान बनेगा।
ग्रामीणांचल में अभी भी संयुक्त परिवार की परंपरा है।यहाँ बुज़ुर्गों के प्रति आदर और सम्मान दिखाई देता है। पितरों का श्राद्ध करना, पिंड दान, गया भोज जैसी परम्परा आज भी प्रचलित है। परिवार के महत्वपूर्ण निर्णय परिवार के सबसे बुजुर्ग सदस्य के मार्गदर्शन से लिए जाते हैं। बड़ों के चरणस्पर्श करके आशीर्वाद लेना, महिलाओं द्वारा उनके सामने सम्मान स्वरुप सिर पर आँचल रखना जैसे संस्कार आज भी दिखाई देते हैं। इन्हें आज के बच्चे केवल देखकर ही सीख सकते है न कि उपदेश सुन कर। परंतु इससे पहले हमें स्वयं अनुकरण करना होगा। कहीं ऐसा न हो कि विकास की दौड़ में आर्थिक सुदृढ़ता के नाम पर हम अमूल्य और दुर्लभ धरोहरों को पीछे छोड़ दें। क्योंकि बीता हुआ समय वापस नहीं आता।
बढ़ती महंगाई, भौतिक सुखों की चाह, सीमित आय, समयाभाव जैसे कारणों से परिवार टूटते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ने ले ली है। आज बच्चे स्वयं को भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें परिवार के बड़े-बुजुर्गों की छत्र-छाया की परम आवश्यकता है। उनके सानिध्य में बच्चा प्रेम, अनुशासन और सम्मान करने का महत्व सीखता है। आज बढ़ते अपराधों का कारण लोगों की दूषित सोच व संस्कारहीन जीवन है। हमारे देश में लगभग सात करोड़ लोग साठ वर्ष से ऊपर हैं। जिनमें लाखों एकाकी जीवन जीने को विवश हैं। वे या तो बच्चों के साथ रहते हुए भी तिरस्कृत हैं या बच्चों के दूर चले जाने पर उपेक्षित हैं।
हम जब अपने बचपन को याद करते हैं तो दादी और नानी की कहानियां, उनके हाथों के बने व्यंजन, हमारी तोतली बोली सुन कर बाबा और नाना के उन्मुक्त ठहाके आज भी कानों में गूँज उठते हैं। उनका सीधा, सरल और संयमित जीवन हमें संतोषी, धैर्यवान और मर्यादित रहने की शिक्षा देता है। उनके विचार और जीवन के प्रति दृष्टिकोण की आज के बच्चों को बहुत आवश्यकता है।
प्रश्न यह है कि क्या वर्ष में एक दिन दादा-दादी, नाना-नानी दिवस मना लेने से हम बच्चों को वही मूल्य और संस्कार दे पाएंगे। यहाँ पर वही अनुकरण करके सीखने का सिद्धांत लागू होता है। बच्चे को कोई बात थोप कर नहीं सिखायी जा सकती। वह हमें वैसा करते हुए देख कर सीखेगा जैसा हम चाहेंगे और करेंगे। बिना नैतिक मूल्यों का समावेश किये शिक्षा अधूरी है। नैतिकता पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर देने या प्रतीकात्मक स्वरूप घोषित कर देने मात्र से नहीं उपजती है। इसके लिए हमें स्वयं आगे आना होगा। अपने बड़े -बुजुर्गों के प्रति संवेदनाएं और सम्मान रखना होगा। उनकी आवश्यकताओं और सुविधाओं की परवाह करनी होगी। घर में उन्हें उचित स्थान देना होगा। स्वस्थ एवं सम्मानजनक संवाद स्थापित करना होगा।
आज अगर हम उन मूल्यों और आदर्शों को सहेज कर रखना चाहते हैं तो ये प्रयास परिवार से ही आरम्भ करने होंगे तभी समाज और देश सुशिक्षित और संस्कारवान बनेगा।
ग्रामीणांचल में अभी भी संयुक्त परिवार की परंपरा है।यहाँ बुज़ुर्गों के प्रति आदर और सम्मान दिखाई देता है। पितरों का श्राद्ध करना, पिंड दान, गया भोज जैसी परम्परा आज भी प्रचलित है। परिवार के महत्वपूर्ण निर्णय परिवार के सबसे बुजुर्ग सदस्य के मार्गदर्शन से लिए जाते हैं। बड़ों के चरणस्पर्श करके आशीर्वाद लेना, महिलाओं द्वारा उनके सामने सम्मान स्वरुप सिर पर आँचल रखना जैसे संस्कार आज भी दिखाई देते हैं। इन्हें आज के बच्चे केवल देखकर ही सीख सकते है न कि उपदेश सुन कर। परंतु इससे पहले हमें स्वयं अनुकरण करना होगा। कहीं ऐसा न हो कि विकास की दौड़ में आर्थिक सुदृढ़ता के नाम पर हम अमूल्य और दुर्लभ धरोहरों को पीछे छोड़ दें। क्योंकि बीता हुआ समय वापस नहीं आता।
लेखिका
कविता तिवारी
प्रा0वि0 गाजीपुर (प्रथम),
विकास खण्ड-बहुआ,
जनपद फतेहपुर।
प्रा0वि0 गाजीपुर (प्रथम),
विकास खण्ड-बहुआ,
जनपद फतेहपुर।
nice story
जवाब देंहटाएं