पुरस्कार के लिए याचना नहीं- एक संस्मरण
गुरु जी ने प्रोन्नति होने पर नए विद्यालय में कार्यभार ग्रहण किया। आते ही देखा स्कूल में अव्यवस्थाओं की भरमार थी। गुरु जी ठहरे कर्मठ और ईमानदार अध्यापक। विद्यालय के लिए तन, मन, धन से समर्पित। आते ही सबसे पहले स्कूल की दयनीय दशा पर दृष्टिपात किया। एक ओर जहाँ पुराने और जर्जर भवन के अवशेष खड़े थे वहीं दूसरी ओर गन्दगी का साम्राज्य व्याप्त था। शौचालय ध्वस्त पड़ा था। नये कमरे पुराने भवन से भी बदहाल दिखाई दे रहे थे।
मात्र दो शिक्षिकाओं के सहारे घिसट रहे इस स्कूल के हेडमास्टर पिछले सत्र में सेवानिवृत्त हो गए थे। जो कि अपने पीछे इस अमूल्य धरोहर को नये गुरु जी की अमानत समझ कर छोड़ गए।
गुरूजी ठहरे सिद्धांतवादी, सच्चे व शुद्ध सोच रखने वाले। उन्होंने विद्यालय को अपना समझ कर इसका काया कल्प करने का निश्चय किया।
सर्वप्रथम प्रार्थना सभा के साथ सभी शैक्षणिक क्रियाकलापों को व्यवस्थित रूप से संचालित करने के पश्चात विद्यालय की मूलभूत आवश्यकताओं व सुसज्जीकरण के लिए प्रयास किये। सुबह विद्यालय समय से पहले स्कूल पहुँच जाते और स्वयं खुरपी, फावड़ा ले कर क्यारियाँ तैयार करते। उनकी मेहनत और समर्पण भाव को देख गाँव वाले हर संभव सहयोग करने को तैयार रहते। धीरे-धीरे गुरूजी की मेहनत रंग लाने लगी। विद्यालय की माटी भी उनका क़र्ज़ चुकाने को तत्पर रहती। अगर वो फल खा कर गुठली फेंक देते तो वहां एक नन्हा पौधा जन्म ले लेता।
उनके विद्यालय की छात्र संख्या बढ़ने लगी। कक्षा-कक्षों की आवश्यकता पड़ी तो विभाग की तरफ से कक्ष बनवाने का आदेश हुआ। धन विद्यालय के सरकारी खाते में भेजा गया। कुछ कथित ठेकेदारों ने निर्माण कार्य कराने का ठेका ले कर उन्हें कक्ष बनवाने का भरोसा दिलाया। बेचारे सीधे-सादे गुरूजी उनके जाल में फंस गए। निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद निर्मित कक्षों की गुणवत्ता का संपूर्ण उत्तरदायित्व गुरूजी पर था। विभागीय जांच में उन पर वित्तीय अनियमितता का आरोप लगाते हुए विभागीय कार्यवाही के तहत उन्हें निलंबित कर दिया गया। वित्तीय क्षतिपूर्ति भी उन्हीं से करने का आदेश हुआ। वे कुछ कथित माफियाओं की कुत्सित योजना का शिकार हो गए थे। परिवार के आर्थिक दायित्वों के निर्वाह हेतु क़र्ज़ में डूब गए।
गुरूजी स्वयं को सच्चा कैसे साबित करें? कोई प्रमाण नहीं। समय बीता, कुछ संगठनों के विरोध के बाद माफिया राज ख़त्म हुआ। विद्यालय प्रबंध समिति एवं शिक्षक संगठन के कुछ ईमानदार लोगों की आवाज़ पर गुरूजी के विद्यालय का पारदर्शितापूर्ण निरीक्षण किया गया। जहाँ उनकी कर्तव्यपरायणता बिना कुछ कहे ही बोल रही थी। उनके चेहरे पर आत्मविश्वास की आभा थी। स्कूल के बच्चों में आचरण और अनुशासन साफ झलक रहा था। निरीक्षण के उपरांत गुरूजी को राष्ट्रपति पुरस्कार देने के योग्य पाया गया।
जब उनसे पुरस्कार पाने के लिए आवेदन करने के लिए कहा गया तो उन्होंने लेने से यह कहते हुए मना कर दिया कि," पुरस्कार के लिए आवेदन करना याचना करने के समान है। सम्मान माँगा नहीं पाया जाता है। यदि सरकार मुझे इस पुरस्कार के योग्य समझती है तो मुझे स्वयं ससम्मान दे, अन्यथा मैं ऐसे पुरस्कार और इस व्यवस्था को ठोकर मारता हूँ।
इस संस्मरण से ये बोध होता है कि , शिक्षक धर्म का पालन करना कठिन ही नही चुनौतीपूर्ण भी है। आज शिक्षक दिवस पर हमें अगर महामहिम राधाकृष्णन जी को सच्ची श्रद्धांजली देनी हो तो इस चुनौती को स्वीकार करना ही होगा।
मात्र दो शिक्षिकाओं के सहारे घिसट रहे इस स्कूल के हेडमास्टर पिछले सत्र में सेवानिवृत्त हो गए थे। जो कि अपने पीछे इस अमूल्य धरोहर को नये गुरु जी की अमानत समझ कर छोड़ गए।
गुरूजी ठहरे सिद्धांतवादी, सच्चे व शुद्ध सोच रखने वाले। उन्होंने विद्यालय को अपना समझ कर इसका काया कल्प करने का निश्चय किया।
सर्वप्रथम प्रार्थना सभा के साथ सभी शैक्षणिक क्रियाकलापों को व्यवस्थित रूप से संचालित करने के पश्चात विद्यालय की मूलभूत आवश्यकताओं व सुसज्जीकरण के लिए प्रयास किये। सुबह विद्यालय समय से पहले स्कूल पहुँच जाते और स्वयं खुरपी, फावड़ा ले कर क्यारियाँ तैयार करते। उनकी मेहनत और समर्पण भाव को देख गाँव वाले हर संभव सहयोग करने को तैयार रहते। धीरे-धीरे गुरूजी की मेहनत रंग लाने लगी। विद्यालय की माटी भी उनका क़र्ज़ चुकाने को तत्पर रहती। अगर वो फल खा कर गुठली फेंक देते तो वहां एक नन्हा पौधा जन्म ले लेता।
उनके विद्यालय की छात्र संख्या बढ़ने लगी। कक्षा-कक्षों की आवश्यकता पड़ी तो विभाग की तरफ से कक्ष बनवाने का आदेश हुआ। धन विद्यालय के सरकारी खाते में भेजा गया। कुछ कथित ठेकेदारों ने निर्माण कार्य कराने का ठेका ले कर उन्हें कक्ष बनवाने का भरोसा दिलाया। बेचारे सीधे-सादे गुरूजी उनके जाल में फंस गए। निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद निर्मित कक्षों की गुणवत्ता का संपूर्ण उत्तरदायित्व गुरूजी पर था। विभागीय जांच में उन पर वित्तीय अनियमितता का आरोप लगाते हुए विभागीय कार्यवाही के तहत उन्हें निलंबित कर दिया गया। वित्तीय क्षतिपूर्ति भी उन्हीं से करने का आदेश हुआ। वे कुछ कथित माफियाओं की कुत्सित योजना का शिकार हो गए थे। परिवार के आर्थिक दायित्वों के निर्वाह हेतु क़र्ज़ में डूब गए।
गुरूजी स्वयं को सच्चा कैसे साबित करें? कोई प्रमाण नहीं। समय बीता, कुछ संगठनों के विरोध के बाद माफिया राज ख़त्म हुआ। विद्यालय प्रबंध समिति एवं शिक्षक संगठन के कुछ ईमानदार लोगों की आवाज़ पर गुरूजी के विद्यालय का पारदर्शितापूर्ण निरीक्षण किया गया। जहाँ उनकी कर्तव्यपरायणता बिना कुछ कहे ही बोल रही थी। उनके चेहरे पर आत्मविश्वास की आभा थी। स्कूल के बच्चों में आचरण और अनुशासन साफ झलक रहा था। निरीक्षण के उपरांत गुरूजी को राष्ट्रपति पुरस्कार देने के योग्य पाया गया।
जब उनसे पुरस्कार पाने के लिए आवेदन करने के लिए कहा गया तो उन्होंने लेने से यह कहते हुए मना कर दिया कि," पुरस्कार के लिए आवेदन करना याचना करने के समान है। सम्मान माँगा नहीं पाया जाता है। यदि सरकार मुझे इस पुरस्कार के योग्य समझती है तो मुझे स्वयं ससम्मान दे, अन्यथा मैं ऐसे पुरस्कार और इस व्यवस्था को ठोकर मारता हूँ।
इस संस्मरण से ये बोध होता है कि , शिक्षक धर्म का पालन करना कठिन ही नही चुनौतीपूर्ण भी है। आज शिक्षक दिवस पर हमें अगर महामहिम राधाकृष्णन जी को सच्ची श्रद्धांजली देनी हो तो इस चुनौती को स्वीकार करना ही होगा।
लेखिका
कविता तिवारी
प्रा0वि0 गाजीपुर (प्रथम),
विकास खण्ड-बहुआ,
जनपद फतेहपुर।
प्रा0वि0 गाजीपुर (प्रथम),
विकास खण्ड-बहुआ,
जनपद फतेहपुर।
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