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घन ! क्यों रुठ गए जन जन से?

घन ! क्यों रुठ गए जन जन से?


तृषित धरा जलती जल के बिन,
बरसे अनल गगन से ।
व्याकुल खग-मृग,तरु,नर-नारी
तरणि-ताप-ताडन से ।
घन ! क्यों रुठ गए जन जन से ?



विपिन,तड़ाग, बाग सब सूखे
दूर मोर नर्तन से।
सरिताएँ कृशतनु तुम बिन ज्यों
वनिता विलग सजन से।
घन! क्यों रुठ गए जन जन से?




ग्राम-देवता गगन विलोकत
हसरत भरे नयन से।
सरस,सदय,सहृदय जलधर! तू
पिघल छोड़ हठ मन से।
घन! क्यों रुठ गए जन जन से?




जलद!प्रफुल्लित कर दे सबको
वारिधार-गर्जन से---
सौदामिनि से ,मनमोहक निज
श्यामरूप दर्शन से।
घन! क्यों रुठ गए जन जन से?




उमड़-घुमड़ कर बरस,गरज
प्यारे!अब हर्षित मन से।
कर खुशहाल ख़ुशी पाएगा
तू आभार सुमन से।
घन! क्यों रुठ गए जन जन से?



रचयिता

उमाशंकर द्विवेदी, देवरिया
9580551400

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