दौर कुछ ऐसा....
दौर कुछ ऐसा अब चला साहिब।
काट अपने ही लें गला साहिब।
गोरे मुखड़ों पे लोग मरते हैं,
रंग अपना तो सांवला साहिब।
रंग अपना तो सांवला साहिब।
जब मुझे छोड़ तुम गये तनहा,
सच कहूँ था बहुत ख़ला साहिब।
सच कहूँ था बहुत ख़ला साहिब।
मुद्दतें दीद को तेरी गुज़रीं,
आज फिर दिल में वलवला साहिब।
आज फिर दिल में वलवला साहिब।
लौट आती है जब सदा मेरी,
चुप ही रहने में है भला साहिब।
चुप ही रहने में है भला साहिब।
कैसे समझें चलन ज़माने का,
मैं निरा ठहरा बावला साहिब।
मैं निरा ठहरा बावला साहिब।
दफ़्न अरमान सब हुए मेरे,
इश्क़ तेरा है कर्बला साहिब।
इश्क़ तेरा है कर्बला साहिब।
ग़ज़लकार- निर्दोष कान्तेय
वज़्न- 212 212 1222
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