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वो झुके हुए कंधे

एक  रिटायर्ड हुए व्यक्ति की व्यथा...
जब उसके पास ना तो पेंशन है और ना ही बचाई हुई संपत्ति।


 वो झुके हुए कंधे

दूर से आते देखा 
 जर्जर हुए उस आदमी को...
अपनी तन्हाई लिए 
बेबसी के आँसू को बहता हुआ। 
बहुत अजीब सा....
खुद को तबाह कर मलाल करता हुआ।
झुके हुए उसके कंधे
जैसे सारा सुकून और खुशियाँ बेचकर आया हो।
आँखों के स्याह घेरे,
 बयान कर रहे थे 
 अपनो की कुछ खुशियों के लिए 
अपना रात-दिन गवां आया हो।
जैसे कुछ....
ऐशोआराम का सामान खरीद कर लाया हो।
पूरा जीवन लगा दिया
 एक-एक समान जुटाने में,
इस्तेमाल कर नहीं पाया 
जिसे जवानी बेचकर कमाया था।
यह सारा कुछ तो उसने
 बुढ़ापे के लिए बचाया था।
अब यही सामान विरासत मे
टुकड़ों टुकड़ों में बँट रहा था। 
जिसको पाने के लिए
 उसका हर बच्चा लड़ रहा था।
 किसने देखा....
 उसे कमाने में निकाल दिए
उसने अपने जवानी के दिन 
किसी को कभी उसका वो 
झुका कंधा नजर नहीं आया था। 
शिकायतों के दरिया
 गीली लाल आँखों का सैलाब लिए
वो झुका कंधा...
बेबस खड़ा कोने में सोचता है 
मैं हूँ वही...
जो कभी तन के रहा करता था।
आज हालात से झुका हूँ 
अपनी परेशानियों में भी,
इतना नहीं झुका था।
लाचार बेबस सा हो चुका हूँ
उम्र के इस पङाव पर आकर
अपने झुके कंधो को अब
 खुद ही अकेले ढ़ो रहा हूँ।

✍️
दीप्ति राय दीपांजलि
कंपोजिट विद्यालय रायगंज 
खोराबार गोरखपुर

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