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अपराजिता

अपराजिता                         

प्राप्त ,अधीन किया यद्यपि,
केवल तन से तन को ,
लेकिन मन   तो सदा अछूता ,
मुक्त ,मुदित ,पावन गंगा सा ।
झूठ ,दंभ ,अभिमान  लिए ,
आतुर ही रहे व्याकुल ही रहे 
कोमल ,भावुक ,नारीत्व हेतु 
तुमने सारे चक्र कुचक्र रचे ,
अपराजिता ,सदा सिद्ध ,
वनिता ,वो सदा विनीत रही ।
निश्छल सुख  प्रेम  की आस लिए,
हर बार छली, छलती ही गई 

 ✍️
"प्रसून "

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