अपराजिता
अपराजिता
प्राप्त ,अधीन किया यद्यपि,
केवल तन से तन को ,
लेकिन मन तो सदा अछूता ,
मुक्त ,मुदित ,पावन गंगा सा ।
झूठ ,दंभ ,अभिमान लिए ,
आतुर ही रहे व्याकुल ही रहे
कोमल ,भावुक ,नारीत्व हेतु
तुमने सारे चक्र कुचक्र रचे ,
अपराजिता ,सदा सिद्ध ,
वनिता ,वो सदा विनीत रही ।
निश्छल सुख प्रेम की आस लिए,
हर बार छली, छलती ही गई
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"प्रसून "
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