Breaking News

धरती की विरह

धरती की विरह


एक रहना तो सरल है,
पर बिछड़ना इक गरल है,
धरा की तन्हाइयों ने,
धैर्य धर अंबर से पूछा,
दूर इतने हो गए हो,
किस जहाँ में खो गए हो? 
विकल मन को आस दे दो,
मिलन का विश्वास दे दो।।१।।


अब न कोई बात होती,
चाँदनी ना रात होती,
कौन तुमको मिल गया है,
जिस पे तेरा दिल गया है।
जिंदगी के इस सफर में,
कौन कॉंटा बो गया है?
मुझको इतना दूर करके,
तू उसी का हो गया है।।२।।


पहले तो ऐसे नहीं थे,
मेरे बिन रहते नहीं थे,
बात इतनी हो रही थी,
रात भर ना सो रही थी।
गीत कोई गुन गुनाते,
रूठती तो तुम मनाते,
अब वो मंजर खो गया है,
तू किसी का हो गया है।।३।।


दर्द दे-दे तुम हमें,
बेदर्द होते जा रहे हो,
बेवफा बन के सनम,
कैसी वफा तू गा रहे हो।
दिल सिसकता जा रहा,
दुःख के तराने गा रहा है,
देख मेरी ए ये दशा,
तुमको मजा क्या आ रहा है।।४।। 


अश्क आँखों से निकल कर,
मिलन की एक आस लेकर,
झर रहे अविरल बदन पर,
वक्ष को दरिया बनाकर।
इस बदन की तपन पाकर,
भाप बनके उड़ रहे हैं,
गगन के घर मगन होने,
जा उसी से जुड़ रहे हैं।।५।।


गगन पाकर आँसुओं को,
आह भरता जा रहा है,
प्रेयसी से मिलन का अब,
चाह बढ़ता जा रहा है।
गगन का घर सर्द है जब,
तप्त आँसू मिल रहे हैं,
घन घटा घनघोर बन जो,
व्योम में अब खिल रहे हैं।।६।।


व्योम की ये वेदना जो,
अब पिघलना चाहती है,
ढल के बूंदों संग वो,
धरती से मिलना चाहती है।
स्नेह पूरित अश्रु जल का
फल धरा पा जायेगी,
जो विरह की आग है,
बुझते धरा मुस्कायेगी।।७।।


घन धरा के योग से 
संयोग ऐसा आएगा,
नव-वधू के  रूप में,
हर तृण शजर मुस्कायेगा।
अब इला का विकल कण जो,
क्यों मुदित मन से न झूमें,
है अवनि के गर्भ संचित,
बीज क्यों न सृजन चुनें।।८।।


दादुरों का झुण्ड हर्षित,
हृदय में उल्लास लेकर,
नाचते हैं मोर वन में,
बादलों का साथ लेकर।
मीन भी मस्ती में डूबीं,
इस कदर बलखा रही हैं,
हंस की वो शुभ्र पंक्ति,
दामिनी सी भा रही है।।९।।


है अगर जो विरह जीवन,
धैर्य ही सबका शमन है।
हैं पिपासु जीव जो,
प्रालेय उनका आचमन है।
विरह की जो वेदना,
जीवन में पाले घूमते हैं।
प्रियजनों के हृदय मंदिर,
देहली वो चूमते हैं।।१०।।

✍️
रमेश तिवारी
प्रभारी प्रधानाध्यापक-
प्राथमिक विद्यालय हरमन्दिर खुर्द
क्षेत्र-फरेन्दा
जनपद-महराजगंज
उत्तर-प्रदेश

कोई टिप्पणी नहीं