दोहे
दोहे
दुपहर देती झिड़कियाँ, लिये नयन में आग।
जन पादप सहमे हुए, भूल गए सब राग।।
आंगन में तुलसी नही, नीम नही है द्वार।
राहें तकते मेघ की , कब आये बौछार।।
सूर्य तपन से जब हुई, गर्म हवा पुरजोर।
उलझन में दिन बीतते, संध्या हो या भोर।।
खूब गरम दोपहरिया, खूब गरम है रात।
पानी से जाती नही, प्यास लगे बेबात ।।
धरती बादल से कहे, कब बरसोगे मीत।
अगन तपन ये कब मिटे, कोयल गाये गीत ।।
जगत जले जल के लिए, तन भीगे निज स्वेद ।
अनचाहे संताप का , जन जन को है खेद।।
✍️ निरुपमा मिश्रा 'नीरू'
बाराबंकी / लखनऊ ( उ०प्र०)
कोई टिप्पणी नहीं