ख्वाहिशें
ख्वाहिशें
पल पल हर लम्हा,
पलती है ख्वाहिशें।
कभी पूरी तो कभी अधूरी,
रह जाती है ख्वाहिशें।
रात दूनी दिन चौगुनी,
बढ़ती जाती है ।
वक्त, बेवक्त,बेमौसम सी
कहीं भी उभर आती हैं।
कहां खत्म होती है ख्वाहिशें।
हो सकती नहीं पूरी,जो कभी
एक पल के लिए भी,
फिर भी ना जाने ऐसी कितनी,,,, पनप जाती है ख्वाहिशें।
कशमकश है जिंदगी की,
जिंदगी अब कैसे बसर करें। ख्वाहिशों को दफन करें,
या फिर,,,,,
ख्वाहिशों की बढ़ती चादर को
जीवन मे खुद के,,, कम करें।
यूं ही रोते-रोते,,,
हंसती है ख्वाहिशें।
फिर भी कहीं ना कहीं,
सिसकती है ख्वाहिशें।
कुछ ख्वाहिशों को पालकर,
उम्र भर जागते हैं।
ना ख्वाहिशें पूरी होती हैं,
ना ही हम पूरे होते हैं।
ख्वाहिशें अमीरों की छोड़ो,
गरीबों की ख्वाहिशों के भी,,, बाजार हुआ करते हैं।
हर ख्वाहिशों में इनके,
दर्द बहा करते हैं।
फिर भी गरीब,,,
,ख्वाहिशों से अपने लिए,
बस मुस्कुराहट खरीद लिया करते हैं।
ख्वाहिशों का क्या है,
इसका सिलसिला जीवन में
रोज बढ़ता रहता है।
क्योंकि ,,,,ख्वाहिशें ही तो
देती है हर रोज,
जीने का नया बहाना।
ख्वाहिशें लेकर आंखों में ,
जी रहा है पूरा जमाना।
ख्वाहिशें कभी कभी,
तमाम खुशियां देती हैं।
और कभी हद से गुजर कर, किसी की जान लेती हैं।
हर हाल में ख्वाहिशें हमारी हसरतों की फरमाइश है।
सबके लिए सब अच्छे बन सके यही तो,,,
ख्वाहिशों की आजमाइश है।
मिले सभी को सभी ख्वाहिशें,
यह ख्वाहिश से गुजारिश है।
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दीप्ति राय" दीपांजलि"
सहायक अध्यापक
प्राथमिक विद्यालय रायगंज खोराबार गोरखपुर
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