शब्द भी अपना वजूद खोने लगे है
शब्द भी अपना वजूद खोने लगे है
गीत ओ गज़ल भी अब रोने लगे है।
चेहरों पर थी कई परतें,
पहली बारिश में ही धुलने लगे है।
यकीं किसका करें 'मयंक'
जब दोस्त ही खंज़र चुभोने लगे है।
टुकड़ों पर थे जो हमारे
हम पर ही अब भोंकने लगे है।
गज़ल के बोल भी मरहम लगाते नहीं
वो तो जख्मों को कुरेदने लगे है।
जो दरख्त लगाये थे हमने
फल उनके कसैले होने लगे है।
रचयिता
सन्तोष कुमार राव,
पू0मा0वि0 मरहठा,
कैम्पियरगंज, गोरखपुर।
गीत ओ गज़ल भी अब रोने लगे है।
चेहरों पर थी कई परतें,
पहली बारिश में ही धुलने लगे है।
यकीं किसका करें 'मयंक'
जब दोस्त ही खंज़र चुभोने लगे है।
टुकड़ों पर थे जो हमारे
हम पर ही अब भोंकने लगे है।
गज़ल के बोल भी मरहम लगाते नहीं
वो तो जख्मों को कुरेदने लगे है।
जो दरख्त लगाये थे हमने
फल उनके कसैले होने लगे है।
रचयिता
सन्तोष कुमार राव,
पू0मा0वि0 मरहठा,
कैम्पियरगंज, गोरखपुर।
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