पश्चाताप
पश्चाताप!
पेड़ की वो मोटी जड़,
निर्निमेष
निहारती रहती है
फलों को,
आकर्षक रंग, सुंदर स्वरूप,
मिठास बांटने की कला,
हर्षित होती है,
अपने पोषण और मार्गदर्शन पर।
और कभी डूब जाती है,
अवसाद के समंदर में,
कहां चूक हुई मुझसे,
या किसकी संगत में आकर
सड़ गया, विकृत हो गया
सुंदर फलों में कोई फल।
पश्चाताप!
बिल्कुल शिक्षक की तरह।
✍️
दुर्गेश्वर राय(स०अ०)
पू०मा०वि० बलुवा, उरुवा, गोरखपुर
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