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वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी

वो  कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी

बात तीन साल पहले की है।हम सब छुट्टियां मनाने बुआजी के यहां गांव गए थे। जुलाई का महीना यानी बरसात का मौसम। हमने वहां  खेतों में आम के बागों में खूब मस्ती की।
एक दिन मै और मेरे भाई ने अकेले गांव घूमने की ठानी, और हम निकल पड़े फूफाजी की ऐतिहासिक बाइक लेकर जो देखने में  ठीक ठाक थी। पर फूफा जी बुआजी को लेकर कहीं जाते थे तो बुआजी को पैदल ही वापस आना पड़ता था।वो गाड़ी फूफा जी का दूसरा इश्क़, और बुआजी जी सौतन हो जैसे। जिस में से एक को उसे छोड़ना नामुमकिन, दूसरे का उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल। बुआजी तो खीज के कहती थी, चोर भी ना चुरा रहे मुई को, छत भी ना गिरे इसपर जो चरमरा जाए,बहुत ज्यादा चिढ़ थी बुआजी को फूफाजी की गाड़ी से।

बहरहाल हम गाड़ी लेकर गांव के किनारे पहुंचे ही थे कि अचानक फूफाजी का इश्क़ हमको  धोका दे गया मतलब गाड़ी बंद हो गई। बारिश भी शुरू हो गई थी। वहीं गांव में छप्पर के नीचे हम गाड़ी खड़ी कर पैदल ही खेतों की ओर चल पड़े। बारिश अब कुछ ज्यादा ही तेज़ हो गई थी।खेतों में इधर उधर घूमे घामे और फिर आम  के बाग में आम खाए,ये सुख शहरों में कहां ,बाज़ार से आए आम और बाग़ से तोड़ कर आम खाने का स्वाद अलग ही  है। बारिश ज़ोरो की हो रही थी, भीगते भीगते अब ठंड लगने लगी थी।

हम गांव के किनारे एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए ,वो पेड़ जामुन का था। वहां पर बहुत से बच्चे इकट्ठा थे। पहले वे पेड़ पर पत्थर मारते फिर जब जामुन गिरते तो उसे पाने को झगड़ते। दो बच्चे जो सब से अलग बैठे  कागज़ की नांव  बना रहे थे उनके पास उनकी अलग अलग किताबें थी, जिसमे से वो कागज़ फाड़ते नाव बनाते उसे पानी में डालते थोड़ी देर बाद जब वह  नाव डूब जाती तो फिर से नई नाव बनाते। यही क्रम चल रहा था।

मैं उत्सुकतावश आगे आयी और  उनके पास जाकर खड़ी हो गयी ,जब मैंने उनकी बातो को सुना तो पता चला दोनों दोस्त हैं। एक का नाम सूरज दूसरे का नाम किशोर ,उम्र लगभग ७-८ साल की होगी दोनों की। वो आपस में बातें कर  रहें थे..........

सूरज - देखना मैं एक दिन सच्ची की नौका बनाऊंगा।
किशोर - कैसे?( बड़े आश्चर्य के साथ)

सूरज- मैं उसको खूब बड़ी बड़ी लकड़ी के लट्ठो से बनाऊंगा।
किशोर- इत्ती सारी लकड़ी लाओगे कहां से?( अपना सिर खुजाते हुए बोला)

सूरज- अरे! मै बड़ा होऊंगा तो खरीद लूंगा।(ज़ोर से)
किशोर- अच्छा फिर कागज़ की नाव नहीं बनाओगे तो फिर हम बरसात में चलाएंगे क्या?(बड़ी हैरानी से)

सूरज- अरे बुद्धू! (सिर पर हाथ मारते हुए)..... सच्ची की बनाऊंगा ना फिर मैं,जो कागज़ की नाव की तरह डूबेगी भी नहीं और भीगेगी भी नहीं। और अपने आप चलेगी बिना चप्पू के ;( बड़ी खुशी से बोल रहा था उसकी आंखो में चमक थी)

किशोर- पर बनाओगे कैसे?
सूरज- अरे दोस्त! जब मैं बड़ा होऊंगा तो अकल भी तो बड़ी हो जाएगी।

किशोर- तुमने कभी देखी भी है सच्ची की नौका?
सूरज - ये देखो.... ( उसने वो किताब दिखाई जिसमें से वो पन्ने फाड़ के नाव बना रहा था) कित्ती सुंदर नौका है।(उसपर हाथ फेरते हुए)

किशोर  -अच्छा दिखाओ मैं भी तो देखूं ज़रा।( खुश होकर)
सूरज- मैंने मां को भी दिखाई थी ये नौका।।

मां बोली इसे बनाने के लिए खूब सारी विद्या सीखनी पड़ती  है..... खूब सारे पैसे लगते है।

किशोर- फिर..( बड़ी हैरानी से)

सूरज- फिर... मां बोली कोई बात नहीं अगर मैं मन लगा कर विद्या सीखूंगा तो वो मेरा नाम स्कूल  में लिखवा देगी( खुश होकर)

किशोर- अरे वाह! ठीक है जब तुम अच्छी वाली नौका बना लेना तो मुझे भी बैठाना।

सूरज - नहीं नहीं पहले मैं अपनी मां को बैठाऊंगा,बाद में तुमको।

किशोर- ठीक है ठीक है,पहले तुम मां को बैठालना ,हम दोनों साथ में बैठ जाएंगे जहां मन करेगा घूमेंगे और पैसे भी नहीं लगेंगे।

( दोनों कहकहा लगा कर ज़ोर से  हंसे)

मुझे भी हंसी आ गई। मेरी हसीं की आवाज़ सुनकर वो अचानक पीछे मेरी ओर मुड़े, और अपनी अपनी किताबें  उठाकर  हंसते हुए भाग खड़े हुए।

बारिश रुक चुकी थी, लेकिन कब...मुझे पता नहीं ,मेरे भाई ने आवाज़ दी तो मैं वापस गाड़ी की तरफ चल पड़ी। बहुत कोशिश  के बाद  बुआजी की रूठी सौतन मान ही गई मतलब गाड़ी चालू हो गई और हम घर की ओर चल पड़े।
पूरे रास्ते मैं यही सोचती रही कि इस छोटे से गांव में जहां कुछ लोगों के पास पेट भरने के लिए शायद पेट भर भोजन ना हो पर उम्मीदों की कोई कमी नहीं है। उस छोटे से बच्चे ने बारिश में नाव के खेल में मुझे अप्रत्यक्ष रूप से वो सिखाया वो शायद बड़े से बड़े ज्ञान के केंद्र भी ना सिखा पाते मुझे।
आज की इस दौड़ भाग भरी ज़िन्दगी में शहरों की ओर आधुनिकता में हम इस तरह खो गए कि अपनी मासूमियत और सपनों को पीछे ही छोड़ दिया।।हमारे यहां शहरों में बच्चों के सपने मोबाइल से शुरू और मोबाइल पर ही खत्म होते जा रहे हैं।

वहीं दूसरी ओर उस बच्चे ने मुझे सिखाया कि सपने जब तक देखेंगे नहीं तब तक उन्हें पूरा कैसे करेंगे। कहतें हैं न....पंख होने से कुछ नहीं होता उड़ान तो हौसलों से होती हैं। सपने देखने के लिए सिर्फ प्रेरणा की आवश्यकता होती है और किसी भी चीज़ की नहीं।।

वो बच्चे जो  "बारिश  के पानी में कागज़ की कश्ती" से खेल रहे थे, सही  मायनों में मुझे अपने सपनों तक पहुंचने,उन्हें पूरा करने की वो प्रेरणा दी जिससे शायद अभी तक वंचित थी । वो बारिश मुझे जीवन भर याद रहेगी जिसमें मैंने छोटे बच्चे से उम्मीद के साथ सपनों को देखना और उन्हें पूरा करना सीखा।

✍️
 सादिया बी ( स. अ)
 प्राथमिक विद्यालय अकबरपुर
  हरिहरपुररानी
    श्रावस्ती

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