"सत्ता के गलियारों में"
बैठाकर कंधों पर जिसको
बाप बड़ा जिसे करता है
आज उसी की शैय्या में
जब बाप का कंधा होता है
उस बिखरे दिल को कौन सँवारे
कौन भरे उन जख्मों को
जो जख्मों का सौदा करते हैं
कैसे रोकें उन गिद्धों को
उन गिद्धों की बातें सुनकर
जब शहर मेरा दहकता है
सत्ता के गलियारों में
तब रोज जश्न सा होता है
टक टकी बांधें हैं अखियाँ
राह तकें निज अपने की
धर्म युद्ध की भेंट चढ़ गया
कैसे पाएं सुध उस बेटें की
जिस माँ ने खोया है बेटा
उस मां का आँचल रोता है
पर तख्तों के सौदागरों को
दंगों से फर्क क्या पड़ता है
शाम को उड़ती खबरों से
फिजाओं का रुख बदलता है
सत्ता के गलियारों में
तब रोज जश्न सा होता है
धर्मों में भेद की बात नही
पर जो धर्मों में स्वार्थ देखते हैं
निज स्वार्थ से ऊपर न उठकर
कानो में जहर जो घोला करते हैं
उस काल विष से दूषित होकर
जब चेहरा कोई ढक जाता है
मासूमियत सा जीवन उसका
जब हिंसा का वृक्ष बन जाता है
उस राजनीति की कुंठा में
जब देश मेरा जब जलता है
सत्ता के गलियारों में
तब रोज जश्न सा होता है
बहुत हुई ये हिंसक झड़पें
अब बहुत उड़ लिया ये धुआं
क्यों मूँद ली आंखे तुमने
क्यों उजाड़ा घर ही अपना
गीदड़ों के उकसाने से
यूँ शेर नही धैर्य खोते
जो हाथ थे राष्ट्र की शक्ति
वो राष्ट्र विरोध में नही उठते
क्यों जकड़े हो जंजीरों में
तोड़ चलो अब जाग उठो
होकर एकत्रित तुम देश के लालो
नव भारत का निर्माण करो
✍️चन्द्रहास शाक्य
प्रा0 वि0 कल्यानपुर भरतार 2
वि0ख0- बाह
जनपद - आगरा।
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