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मुसाफिर

"मुसाफिर"

चल रहा हूँ राहों में,
एक मुसाफिर की तरह....

राह सुनी है मगर
मेरे इरादे सुने हैं नहीं
जब तक चलूंगा पथ पर
हार में मानूँगा नहीं....

वृक्षों की कहीं छाँव है
तो कहीं पत्थर शूल भी
पर कठिनाइयों को देखकर
मैं डरने वाला नहीं....

क्वार की धूप है तो
कहीं पूस की रात भी
चलता रहूंगा जब तक
मंजिल की शुरुवात नहीं....

राह की ठोकरों में
कहीं अगर मैं गिर गया
तो शक्ति को एकत्र करके
पुनः फिर मैं उठ गया....

सामने शिखर है तो
मैं मुड़ने वाला नहीं
कदम तब तक रुके नही
शिखर चढ़ जाता नहीं....

कर्म से में ना हटूं
यों ही नित्य आगे बढूं
अंत की क्यों सोच लूं
जब वर्तमान में जियूँ....

लड़ाई मेरी तुझसे नहीं
ये लड़ाई मेरी खुद से है
अगर राह अनंत है तो
में भी कुछ कम नहीं....

चलता रहूँगा जब तक
मैं मिट जाता नहीं....

✍  रचनाकार-
      चन्द्रहास शाक्य
      सहायक अध्यापक
      प्रा0 वि0 कल्याणपुर भरतार 2
      बाह, आगरा


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