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नैतिकता का पाठ

■ नैतिकता का पाठ
 (जब एक छात्र बना गुरु)

      बचपन से मेरी आदत थी जब भी मैं खाना खाता जितना खाता उससे अधिक बर्बाद कर देता।मेरी इस आदत से मेरे घर के सभी लोग बहुत परेशान रहते,खाना खाते समय थाली में अधिक खाना रख लेता और फिर थोड़ा सा खा बाकी फेक देता,मेरी इस हरक़त से मुझे अक्सर डांट भी पड़ती इसी तरह कही दावत आदि में जाता तो भी यही हरक़त करता। मेरे दोस्त भी मेरी इस आदत के लिए मुझे बहुत बुरा भला भी कहते।मेरी इस आदत के लिए मुझे कभी कभी बेईज्ज़ती का भी सामना करना पड़ता था,ऐसी बात नही कि मैं इस आदत से छुटकारा नही पाना चाहता पर आदत ऐसी पड़ गयी कि कुछ दिनों तक छूटती फिर दोबारा वही हरक़त मैं करने लगता।इसी लिए मैं किसी के घर एवं पार्टी में जाने से बचता,धीरे-धीरे ये आदत मेरी आयु के साथ बढ़ती गयी,और मैं इस आदत के गंभीर रोग से ग्रस्त हो गया।

          पढाई पूरी होने के बाद मेरा चयन गोरखपुर के प्राइमरी स्कूल में बतौर सहायक अध्यापक पर हो गया। पर ये आदत नही छूटी मैं विद्यालय लंच बॉक्स ले जाता था पर वही काम करता घर से अपनी ख़ुराक से अधिक रोटी/पराठा ले जाता एक-दो रोटी/पराठा खाता बाकी पेपर में लपेट फेक देता, यू करते करते छः माह हो गए ।एक दिन मैं विद्यालय पर बैठा लंच कर ही रहा था कि देखा मेरे विद्यालय का कक्षा तीन का छात्र जिसका नाम सूरज था दरवाजे की आड़ से मुझे चुपके-चुपके देख रहा था ,मेरी नज़र जब उस पर पड़ती तो वह हट जाता।जिस कमरे में लंच करता उसी के बगल में खिड़की थी जहाँ से मैं बची रोटी/पराठा फेक देता था।उस दिन भी मैंने वही किया जैसे ही मैंने बची रोटी फेकी तुरन्त वो छात्र फेकी रोटी उठाकर अपने बैग में रख लिया। मैंने सोचा भूखा हैं इस लिये रोटिया रख ली होगी,लेकिन फिर दिमाग में आया कि स्कूल में एम डी एम तो बनता  ही हैं और सभी छात्र के साथ ये भी तो एम डी एम खाता ही हैं।ऐसा क्यों किया समझ में नही आया और छुट्टी के समय मैंने उस छात्र का बैग जांचा तो वो रोटी वैसे ही पेपर में लपेटी रखी थी,मुझे दया आयी कि हो सकता घर जाकर खाये,खैर प्रतिदिन मैं यही काम करता और वो छात्र सूरज भी वही काम करता।इस तरह छः माह तक चला।

          मुझे रहा नही गया,एक दिन मैंने जैसे ही सूरज को रोटियां उठाते देखी मैंने तुरन्त उसको पकड़ पूछा कि तुम ये क्या करते हो पहले तो वो डरा और रोटी निकाल देने लगा,मैंने कहा दो नही ये बताओ इसे घर क्यों ले जाते हो? सूरज ने डरते हुए अपनी भाषा में कहा कि “ई अनवा के खातिर ही सब कमा ला मास्टर जी” ये सुनना था कि मैंने कहा कि तुमको किसने ये बात बताई तो उसने कहा कि बाबा कहे ले कि “ई पेटवा के खातिर सब कमा ला, ई पेटवा के लिए ही गाँऊवा के सभी लोग विदेश कमाए गए हैं और हमारा पिताजी भी।यही लिए कभी अनवा फेके के नाही चाही जो फेके ला ऊ सबसे बड़ा पापी हैं।ई रोटिया हम गयेया के खिला नी।”ये सुनते ही मेरा पूरा बदन काँप गया और ऐसा लगा जैसे मेरी आत्मा को किसी ने झकझोर दिया हो और मासूम सूरज को गले लगाते हुए मैंने ये प्रण किया कि आज के बाद अब कभी भी मैं खाने की वस्तु बर्बाद नही करूंगा।आज इस घटना के हुए चार वर्ष हो गए पर जब भी मैं खाना खाता वो घटना आज भी याद आती हैं,कि किस तरह एक छात्र ने मुझे नैतिकता का पाठ पढ़ाया था,जिसने मेरी ज़िन्दगी बदल दी।
                            
                
✍ रचनाकार :
अब्दुल्लाह ख़ान
(स.अ.)
प्रा.वि.बनकटी 
बेलघाट
गोरखपुर(उ.प्र.)


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