ख़ुशहाल ज़माना हो
ख़ुशहाल ज़माना हो (ग़ज़ल)
ख़ुशहाल ज़माना हो ज़ुल्मत का नहीं डर हो
हर ओर उजालों की उम्मीद फ़लक पर हो
हर आँख में खुशियों का मंज़र हो यहाँ पर तब
सौग़ाते सुकूँ मेरे दिल को भी मयस्सर हो*
हुक्काम बहुत ख़ुश हैं दावे हैं तरक़्क़ी के
दावे के मुताबिक़ ये जीवन भी तो बेहतर हो
पढ़ते हि बदन मेरा यूँ सुन्न हुआ यारों
इनकार का ख़त जैसे इक्ज़ाम का पेपर हो
बनते ही मेरा हमदम इस तरह वो इतराया
जैसे कि कोई बच्चा स्कूल का टाॅपर हो
अल्लाह दिखाना मत दुश्मन को भी ऐसे दिन
पैसों की ज़रूरत हो ढेला भी न घर पर हो
'पाठक' जी ज़रा सोंचो हालात ग़रीबों के
सर पर हो खुला अम्बर बिस्तर भी ज़मीं पर हो
✍ ज्ञानेन्द्र 'पाठक'
स0अ0
प्रा वि ग्वालियर ग्रण्ट
रेहराबाज़ार, बलरामपुर
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