समझ का फेर
समझ का फेर
सिर्फ समझ के फेर से बड़ा अंतर हो गया,
बेटी अपनी, बहू पराया धन हो गयी।
बहू का मायका खराब, बेटी की ससुराल खराब,
कहीं ऐसा तो नहीं, हमरी सोच ही ख़राब हो गयी।।
माना बहू को कोख से नहीं जन्मा,
पर कोख से जन्मे की अर्धांग्नी है वो ।
उसके जीवन के सपनो की आधार है,
तुम्हारे वंश की प्रमुख सूत्रधार है वो ।।
कोख से जन्मी बेटी को सिखाओ,
ससुराल में सबका दिल जीतने गयी है वो।
ससुराल में समरसता और ख़ुशी का कारण बने,
न कभी कलह का केंद्र बने वो।।
देखना जीवन सरल हो जायेगा,
सब कुछ संवर जायेगा।
जब बहू को बहू का मान,
और बेटी को ससुराल के संस्कार दिया जायेगा।।
न बहू है ख़राब, न सास में कोई समस्या है,
नजर जो बदली तो तकरार निश्चित है।
कह रहा *अभी* बहू को बेटी मत बनाइये,
बहू को बस अपना बनाइये, अपना बनाइये।।
लेखक
अभिषेक द्विवेदी 'खामोश'
सहायक अध्यापक
प्राथमिक पाठशाला मंन्हापुर
सरवनखेड़ा कानपुर देहात।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंVery nice
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