निरीह बचपन
निरीह बचपन
कितना कठिन है अभाव में बचपन बिताना ,
3 साल के मासूम का राह में जाते हुए हर खाद्य पदार्थ को देखकर चिल्लाना।
आइसक्रीम वाले का भोंपू बजाना,
और उसे पाने के लिए बच्चे का घर सर पर उठाना,
मां की बेबसी ,वह आइसक्रीम उसे ना दे पाना।
डांटना, समझाना, उस चीज के तमाम नुकसान गिनाना।
और यह सब होते हुए अभी बच्चा चुप ही हुआ ,
तब तक फिर फुलकी वाले का आना,
बच्चे का फिर से शोर मचाना।
कैसे माने यह बालमन चीज होती है ये खराब ,
क्योंकि बगल के दीदी भैया तो इसका स्वाद ले रहे लाजवाब।
अंत में थक हार कर जब नहीं मानता चंचल ,
मां भी सीने पर पत्थर रखकर मारती है दो चप्पल।
रोता बिलखता बच्चा सो जाता है बिस्तर पर,
मां भी रोती -बिलखती अपनी किस्मत पर,
क्या मांगा था मेरे बच्चे ने,पांच रुपए की चीज,
वह भी ना दे पाई मैं ,और उतार दी अपनी खींझ।
ईश्वर तेरी लीला अपरंपार,
उठकर बच्चा भूल जाता सारा संसार,
फिर लग जाता मां के सीने से ,
और नई जिद करने को हो जाता है तैयार ।
अपने घर से यह सब देख मेरा मन हो जाता व्यथित ,
क्योंकि अगले दिन फिर शुरू होगा वही खेल ,
आइसक्रीम वाले का आना,
जोर-जोर से भोंपू बजाना,
पर इस बार ना बच्चे का
रोना और ना चिल्लाना,
क्योंकि शायद वह यह जान चुका था,
उसे अभाव में ही है अपना बचपन बिताना ।
✍️
सुप्रिया मिश्रा (स.अ)
संविलयन विद्यालय पिपरा गंगा
क्षेत्र-खजनी,जनपद- गोरखपुर
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