आमी का दर्द
'आमी का दर्द'
(आमी नदी गोरखपुर, सन्तकबीरनगर, सिद्धार्थनगर में बहती जो आज प्रदूषण के कारण काजल की कालिमा को मात दे रही है।
आमी नदी के किनारे ही मगहर में कबीर दास जी का देहांत हुआ था।)
आमी तट से गुजरते हुए अनसुनी प्रतिध्वनि कानों से गुजरी. गाड़ी की रफ्तार अचानक धीमी हुई, मष्तिष्क कौतूहलवश आखों को इधर-उधर देखने के लिए विवश किया.बहुत सोचने के बाद महसूस हुआ कि अरे ये कराह, यह दर्द अपनी प्यारी सरिता आमी की है.
सुनकर 'आमी' का क्रन्दन्
द्रवित हो गया मेरा मन.
मेरा(आमी) अतीत भी स्वर्णिम था,
जब धवल नीर सब पीते थे
मीन, मवेशी, सब व्याकुल हो,
सब आते खुश हो जाते थे.
जब असीम मैं हो जाती,
मिट्टी की खुशबू बढ़ जाती
इठलाती उर्वरता से मिलकर,
आओ हरियाली आओ.
संचित अपार पौष्टिकता का
लेकर अविरल बहती थी,
रोजगार का साधन थी
कितने लोगों को सहेजे थी.
आधुनिकता की अंध दौड़ में
आंखमिचौली किए हुए,
तिल -तिल कर मारा तुमने
झूठे विकास के रण में.
अन्तस् की पीड़ा वो समझे
जो अन्तरतम् में झांके.
(मेरी डायरी के पन्ने से)
डॉ0 अनिल कुमार गुप्त,
प्र०अ०, प्रा ०वि० लमती,
बांसगांव, गोरखपुर
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