एम् डी एम् ऑडिट
एमडीएम ऑडिट
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साहब की सहबी में कोई कमी न थी | तयशुदा समय के बाद उपस्थित होना , विशिष्ट अंदाज़ में कुर्सी में बैठना , ऑडिट कराने आये हुए महानुभावों को नज़र अंदाज़ करना , नज़रों को प्रपत्रों में ही टिकाये रखना और साथ ही आवश्यक्तानुसार ' शिकारी अंदाज़ ' । आँखों में चढ़ा चश्मा ,नाक की नोक तक पहुंच रहा था और यह सन्देश दे रहा था कि साहब पुराने चावल हैं |
शुरुआती हाव-भाव भी ' अंग्रेजी जमाने के जेलर ' सरीखे थे लेकिन भला हो 'अनुभवी आँखों ' का , बेग चाचा तुरंतइ बता दिए कि 'पक्का घाघ' है , केवल हरिहर गोजा चलेगा ।
बेग चाचा की बात हमे जम गई और हमने भी सोच लिया ' जइसा इनके साथ सलूक वइसेन बाबा राम मलूक ' । माने ये, कि अब हम भी काहे डरें भला ? जब लाल स्याही हरिहर जमीनै में गिरनी है ! तो हमने भी आपसी सहमति से और विचार करके हरी घास के गट्ठर का वजन निश्चित कर लिया और साथ ही साहब के चेले को सूचनार्थ एवम् अग्रिम कार्यवाही हेतु कनखियों वाला संकेत भी प्रेषित कर दिया ।ये भी निश्चित कर लिया कि हमाये खजाने में हरी घास की उपलब्ध मात्रा है भी या नही ! शुक्र है की की चार नीले और दो बैगनी पत्रों ने हरियर भार के बराबर का वज़न उठा लेने की जिम्मेदारी उठा ली थी ।
' पहला भोग गणेश का ' , कुछ इसी तर्ज पर साहबान के सामने नाश्ता रख दिया गया । हम जनम के प्यासों को तो पानी का ठिकाना भी नही था और टेबल पर बिसलेरी की बोतलें सजाई जा रही थीं ।मेरी हालत तो 'शराबी' के अमिताभ जैसी हो रही थी , फर्क बस इतना ही था कि मुझे 'बोतल में पानी ' की शिद्दत से तलाश थी और वह भी नसीब नही हो पा रहा था । खैर मामला ऑडिटी है... सो प्यास को तो सम्भालना ही था , संभाले ही रखा ।
कई बार आंकड़ों की बाजीगरी तो जैसे पकड़ ही ली
थी ।शब्दों में चातुर्य का मिश्रण तो था ही साथ ही 'गांधीगीरी' का सम्मोहन बांधे भी हुए था । पंजिकाओं में सफेद कवर चढ़ाते समय ही शुभ का संकेत मिल गया था , रसोइये ने सब्जी के शोरबे की कुछ बूंदों की बौछार लापरवाही से कर दी थी ।तात्कालिक गुस्से को भी वैसे ही पी गया जैसे कि शोरबे को जल्दबाजी में उतार गया था ।भला हो, तली पर जा बैठी उन चन्द कटी हुई आलुओं का जिन्होंने 'सब्जी ही होने के' मुग़ालते को ग़लत साबित होने नही दिया ।
थी ।शब्दों में चातुर्य का मिश्रण तो था ही साथ ही 'गांधीगीरी' का सम्मोहन बांधे भी हुए था । पंजिकाओं में सफेद कवर चढ़ाते समय ही शुभ का संकेत मिल गया था , रसोइये ने सब्जी के शोरबे की कुछ बूंदों की बौछार लापरवाही से कर दी थी ।तात्कालिक गुस्से को भी वैसे ही पी गया जैसे कि शोरबे को जल्दबाजी में उतार गया था ।भला हो, तली पर जा बैठी उन चन्द कटी हुई आलुओं का जिन्होंने 'सब्जी ही होने के' मुग़ालते को ग़लत साबित होने नही दिया ।
' साहब लोग ' और उनके सहबी तौर-तरीके , इस प्रश्न के सम्भावित उत्तर को और अधिक पुख्ता करते हैं कि गांधी बाबा के न होने पर लोगों की मदद कौन करेगा? और उत्तर तो सबको पता ही है कि 'खुद गांधी बाबा '
(सुधांशु श्रीवास्तव)
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