वसुधैव कुटुम्बम की थाती
चाहत के ताने बाने पर, उम्मीदें इन्सां बुनता है।
जीवन के पथ पर मानव नित, रिश्तों के मोती चुनता है।
पर चूक चयन में हो जाए तब सिर अपना ही धुनता है।
क्या कथा कहूँ क्या व्यथा कहूँ, अब कौन किसी की सुनता है।
यात्रा के गर्म थपेड़ों को, जिसने जीवन में झेला है।
रुख़ अनजाने वो पाता है, जिनके सँग खाया खेला है।
हर ओर भीड़ है दुनिया में, हर ओर लगा इक मेला है।
पर जीवन-रण संघर्षों में, हर इन्सां निपट अकेला है।
संस्कृति अपने प्रिय भारत की, किंचित भी ऐसी रही नहीं।
अपने शुचि वेद पुराणों ने, ऐसी तो बातें कही नहीं।
वसुधैव कुटुम्बम की थाती, लेकर हर पीढ़ी पली बढ़ी।
अपमिश्रण कैसे हुआ भला, जग में कैसे विष बेल चढ़ी।
स्वर रहे शिकायत के सबके, क्या झाँका ख़ुद के अंतस में।
क्या मुख देखा निज दर्पण में, क्या किया रहा जो निज बस में।
संस्कृति अपनी अक्षुण्ण रहे, अब ये दायित्व हमारा है।
यदि प्रथम सुधारेंगे निज को, तब ये जग सबसे प्यारा है।
रचनाकार- निर्दोष कान्तेय
काव्य विधा- मत्त सवैया/ राधेश्यामी छंद
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