llमहारथी कर्णll
llमहारथी कर्णll
ज्ञात था मिटना समर में
फिर भी धनुष लिए सज्जित हुआ
मित्र ना हो क्षीण रण में
थामे कमान राधेय चला
फिर भी धनुष लिए सज्जित हुआ
मित्र ना हो क्षीण रण में
थामे कमान राधेय चला
जैसे पग बड़े रण की ओर
पुकार सुनी करुणा से विभोर
जो कभी मातृत्व न दे पाई थी
आज निज सुत को लेने आयी थी
पुकार सुनी करुणा से विभोर
जो कभी मातृत्व न दे पाई थी
आज निज सुत को लेने आयी थी
आजाओ पछ तुम पांडवों के
कौन्तेय दूंगी पहचान नयी
कुल में श्रेष्ठ बन जाओगे
तुम पांडवो में ज्येष्ठ कहलाओगे
कौन्तेय दूंगी पहचान नयी
कुल में श्रेष्ठ बन जाओगे
तुम पांडवो में ज्येष्ठ कहलाओगे
भर गया मन जब ये सुनकर
पर पाषाण हृदय कर वह बोला
जो छोड़ चली थी दुधमुँहे को
कैसे जागा आज सुत प्रेम उसका
पर पाषाण हृदय कर वह बोला
जो छोड़ चली थी दुधमुँहे को
कैसे जागा आज सुत प्रेम उसका
क्षमा करो हे राज माता
अब मित्र मुझसे ना छूटेगा
कौन्तेय तो मैं कभी हुआ ही नही
अब अधिकार है मुझ पर राधे का
अब मित्र मुझसे ना छूटेगा
कौन्तेय तो मैं कभी हुआ ही नही
अब अधिकार है मुझ पर राधे का
आयी हो द्वार बन याची तुम
तो खाली हाथ न जाओगी
वचन रहा ये मेरा तुमको
जीवित,पांच पुत्रों को पाओगी
तो खाली हाथ न जाओगी
वचन रहा ये मेरा तुमको
जीवित,पांच पुत्रों को पाओगी
जब उतरा युद्ध समर में वो
नर संघार है ऐसा घोर मचा
रंग गयी लाल, भूमि रक्त में
कुरु भूमि में जैसे स्वयं काल खड़ा
नर संघार है ऐसा घोर मचा
रंग गयी लाल, भूमि रक्त में
कुरु भूमि में जैसे स्वयं काल खड़ा
आखिर धसा रथ चक्र भूमि में
मस्तिष्क में ऐसी विस्मृति छायी
याद रहा ना शस्त्र ज्ञान
जीवन पर जब विपदा आयी
मस्तिष्क में ऐसी विस्मृति छायी
याद रहा ना शस्त्र ज्ञान
जीवन पर जब विपदा आयी
याद आ रहा गुरु श्राप अब
जो आज सत्य हे हो रहा
हँस जान कर यही नियति मेरी
रथ चक्र निकालने राधेय चला
जो आज सत्य हे हो रहा
हँस जान कर यही नियति मेरी
रथ चक्र निकालने राधेय चला
यही समय है यही अवसर
माधव ने पार्थ से कहा
भूल जा धर्म अधर्म की बाते
ना हो जाये काल फिर से खड़ा
माधव ने पार्थ से कहा
भूल जा धर्म अधर्म की बाते
ना हो जाये काल फिर से खड़ा
फिर चला गांडीव बज्र बनकर
वो छाती पर रक्त की धार लिए
सूर्य अस्त हो गया हो जैसे
आंखों मैं करुण रक्त लालिमा लिए
वो छाती पर रक्त की धार लिए
सूर्य अस्त हो गया हो जैसे
आंखों मैं करुण रक्त लालिमा लिए
गगन में छा गयी नीरसता है
हुआ क्षीण सूर्य का तेज भी
जब जा रहा निज तन छोर
आज दानवीर देकर प्राण भी
हुआ क्षीण सूर्य का तेज भी
जब जा रहा निज तन छोर
आज दानवीर देकर प्राण भी
छोड़ परशु की विद्या
वो राम यश लिए जा रहा
आरम्भ से जो अपराजित था
आज प्रारब्ध से वो हार रहा
वो राम यश लिए जा रहा
आरम्भ से जो अपराजित था
आज प्रारब्ध से वो हार रहा
लज्जित है देवराज स्वयं पर
केशव के अश्रु भी झलक रहे
शब्द यही निकलें हैं मुख से
चिरकाल तक हम दोषी रहे
ज्ञात तुझे था, अंत स्वयम का
फिर भी अडिग तू मित्रधर्म पर
हे सूर्यपुत्र, हे महादानी
तुझसा वीर नहीं इस धरा पर
शब्द सुने ,जब पार्थ ने
व्यथित सा कुछ हो गया
माधव ये मुझको बतलाओ
मुझसे बड़ा वो कैसे हो गया
तीन पग पीछे रथ हटने पर अपना
तुम उसकी प्रशंसा कर जाते थे
मैं दस पग पीछे करता रथ उसका
ये क्यों विस्मृत कर जाते थे
मेरे गांडीव में बल नही
क्या ये कहना तुम चाहते हो?
या है बड़ा वो धनुर्धर मुझसे
ये सिद्ध करना तुम चाहते हो?
भरे कंठ से तब बोले माधव
अर्जुन तू मुझसे अनजान नही
रथ साध रहा तेरा परम ब्रह्म
जिसका पार किसी के पास नहीं
ये युद्ध तो तूने लड़ा ही नहीं
उसका हर वार तो मैंने काटा था
पर हर बाण को क्षीण करने पर भी
पर तेरा रथ हिल जाता था
जिस रथ को साध रहा था मैं
अनगिनत सृष्टियो का भार लिए
उस रथ का तीन पग हटना क्या
वो रथ हिलना ही मुश्किल था
पर हिला रहा, जो रथ तेरा
अपने हर बाणों के प्रहारों से
नत मस्तक हैं आज देवगण
उसकी शौर्य भरी ललकारों से
न हुआ है ऐसा दानवीर
ना जन्मेगा उससा मित्र दूजा
जो समर में जीवन दान दे
वही है होता रणवीर सच्चा
प्रकटा था कर्ण सूर्य अंश से
आज सूर्य मैं ही मिलने जा रहा
उस पराक्रमी उस दानवीर के
इसलिये मैं गुणगान गा रहा
✍ रचनाकार-
चन्द्रहास शाक्य
सहायक अध्यापक
प्रा0 वि0 कल्याणपुर भरतार 2
बाह, आगरा
चन्द्रहास शाक्य
सहायक अध्यापक
प्रा0 वि0 कल्याणपुर भरतार 2
बाह, आगरा
कोई टिप्पणी नहीं