द्रोपदी का संस्मरण
IIद्रोपदी का संस्मरणII
राजमहल के छत से दूर बहुत दूर कौरवों की चिताग्नि को देख किसी उधेड़बुन में द्रोपदी चहल कदमी कर रही थी वह अपने अतीत में खोई हुई थी मन में कई प्रश्न उठते कुछ बुदबुदाती फिर शान्त हो जाती।
मै अगर अट्टहास न करती तो सुयोधन प्रतिशोध की ज्वाला में न जलता, मैंने भी तो ज्येष्ठो का अपमान किया, क्यों धृतराष्ट्र को भला बुरा कहा, धृतराष्ट्र को लेकर अगर सुयोधन पर मैं व्यंग न कसती तो शायद महाभारत न होता, क्या युद्ध की दोषी मै हूँ? क्यों दुःशासन ने मुझे निर्वस्त्र करना चाहा? सुयोधन के प्रतिशोध के आदान-प्रदान मे तो मैं भी सुलगती रही।
मै तो अपनो से भी अपमानित हुई क्या मैं जुएं में खेलने की वस्तु थी? हां मैं उस समय धर्मराज युधिष्ठिर की पत्नी जो थी। माँ कुन्ती ने भी तो मुझे वस्तु ही समझा, उनके सुवाक्य का अनुपालन उनके पुत्रों ने किया अवज्ञा का कोई प्रश्न ही नहीं। मैंने विरोध किया लेकिन शान्त हो गई।
धृतराष्ट्र का अपने अंधेपन का लाभ गांधारी द्वारा स्वार्थ के वशीभूत आंखों में पट्टी बांध कर पतिव्रता का ढोंग, भीष्म की प्रतिज्ञा एवं आदर्श वचन मुझे जड़वत एवं किंकर्तव्यविमूढ करते थे। तभी उसकी तन्द्रा भंग होती है। वह दूर जलती कौरवों की चिताग्नि को देख प्रसन्न होती हैं क्योंकि उसकी घृणा द्वेष अपमान और प्रतिशोध की चिता भी जलकर पंचतत्व मे विलीन हो जाती है
राजमहल के छत से दूर बहुत दूर कौरवों की चिताग्नि को देख किसी उधेड़बुन में द्रोपदी चहल कदमी कर रही थी वह अपने अतीत में खोई हुई थी मन में कई प्रश्न उठते कुछ बुदबुदाती फिर शान्त हो जाती।
मै अगर अट्टहास न करती तो सुयोधन प्रतिशोध की ज्वाला में न जलता, मैंने भी तो ज्येष्ठो का अपमान किया, क्यों धृतराष्ट्र को भला बुरा कहा, धृतराष्ट्र को लेकर अगर सुयोधन पर मैं व्यंग न कसती तो शायद महाभारत न होता, क्या युद्ध की दोषी मै हूँ? क्यों दुःशासन ने मुझे निर्वस्त्र करना चाहा? सुयोधन के प्रतिशोध के आदान-प्रदान मे तो मैं भी सुलगती रही।
मै तो अपनो से भी अपमानित हुई क्या मैं जुएं में खेलने की वस्तु थी? हां मैं उस समय धर्मराज युधिष्ठिर की पत्नी जो थी। माँ कुन्ती ने भी तो मुझे वस्तु ही समझा, उनके सुवाक्य का अनुपालन उनके पुत्रों ने किया अवज्ञा का कोई प्रश्न ही नहीं। मैंने विरोध किया लेकिन शान्त हो गई।
धृतराष्ट्र का अपने अंधेपन का लाभ गांधारी द्वारा स्वार्थ के वशीभूत आंखों में पट्टी बांध कर पतिव्रता का ढोंग, भीष्म की प्रतिज्ञा एवं आदर्श वचन मुझे जड़वत एवं किंकर्तव्यविमूढ करते थे। तभी उसकी तन्द्रा भंग होती है। वह दूर जलती कौरवों की चिताग्नि को देख प्रसन्न होती हैं क्योंकि उसकी घृणा द्वेष अपमान और प्रतिशोध की चिता भी जलकर पंचतत्व मे विलीन हो जाती है
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