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अज्ञात अस्तित्व

हर पल हर छण
हर कदम पर सोचूं
स्वयं को नित
स्वयं में खोजूं
विस्मृति सी छायी है
यह बात समझ ना  आयी है
आखिर क्या है ?
अस्तित्व मेरा
आखिर क्यों हूँ?
इस भीड़ का हिस्सा
उड़ना है मुझे भी
स्वच्छंद गगन में
खोलने  पंख हैं
क्षितिज अम्बर में
फिर क्यों जकड़े हूँ
जंजीरें पैरों में
क्यों बाँधे  हुआ सपने
अपने मन में
नहीं जलना है
मुझे जुगनुओं जैसा
अगर चमकना है
तो शिखर पर चंद्र जैसा
धूमिल है छवि
अभी श्वेत दीप्ति में
भले अज्ञात हूँ अभी
ज्ञातों की भीड़ में
पर अस्तित्व  धरा पर मेरा भी
ये बात सिद्ध कर जाऊंगा
अज्ञात भले ही जी रहा
पर अज्ञात में न जाऊंगा
✍  रचनाकार-
      चन्द्रहास शाक्य
      सहायक अध्यापक
      प्रा0 वि0 कल्याणपुर भरतार 2
      बाह, आगरा

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