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कोशिश - एक बेटी

कोशिश - एक बेटी


हार को जीत में बदलने का हुनर जानती है कोशिश,
मुश्किलें हुई तो क्या,अपनी मंज़िल को कैसे पाएं, बेपरवाह,अपनी डगर पहचानती है कोशिश।


कब तक रोकोगे संकीर्णता की बेड़ियों में,
ये बहता पानी है दरियां का,पर्वतों को रौंद कर रेत बनाना जानती है कोशिश।


लायक है पलकों पर बैठाएं जाने की,
खुद सिर पर मनों बोझ उठाएं,
ग़ैर तो गैर ,अपनों के ताने और कटाक्ष सहते,
नियमित विद्यालय जाने का नाम है कोशिश।


खेत-खलिहानों, घर के चौके से खेल के मैदानों तक,डट कर मुकाबला करती,
पदकों, तमगों में चमकी नित नए आयाम बनाती है कोशिश।


बेटों की चाहत में घुट जाती है जिनकी साँसे और अरमान तक,

अपने ही जज़्बातों को दबाती और लहूलुहान एहसासों में भी खिलती कलियों सी मुस्कान है कोशिश।


कुछ तो लायी ही नही गयीं इस दुनियां में,
या आयी तो हैं लड़कर; दरिन्दों ,भेड़ियों से बच बचाकर,
कटे पैरों से भी पर्वत शिखरों पर, अपना परचम लहराने का नाम है कोशिश।


कितना भी कुचलो, झाड़ियां नही हैं जो सूख जायेंगी,
ऊँचे -लम्बे विटपो पे चढ़ते जाने वाली, 'अमरबेल'  'एक बेटी ' का नाम है कोशिश।।


✍ रचनाकार :
डॉ0 जया सिंह
प्रधानाध्यापिका
प्रा0 वि0 बसडीला रौसड़
क्षेत्र- पिपराइच
जिला- गोरखपुर

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