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चन्दा का स्वेटर

  रूठे चन्दा प्यारे एक दिन ,माता से यह बोले
बुन दो मुझको भी एक स्वेटर,लाकर ऊन के गोले।

गर्मी चली गयी है अब तो सर्दी को है आना,
आसमान में चलकर मुझको दूर बहुत है जाना ।।

मौसम है जाड़े का आना ठण्ड बहुत है लगती,
बाट जोहती रात रात भर  तू भी तो है जगती ।।

तब तक मुझको कोई स्वेटर बाजार से ही दिलवा दो,
या फिर मेरी नाप दिला कर दर्जी से सिलवा दो।।

माता बोली बड़े प्यार से, हो तुम कितने भोले,
सिलवा दूंगी मैं तुझको ऊन के मोटे झिंगोले।।

किस दिन नाप दिलाऊँ तेरी सोच के मन घबराये ,
कभी किसी दिन बहुत बड़ा तू,छोटा कभी हो जाये।।

घटता बढ़ता रहता हरदम ऐसा भी होता है,
दिखलाई न पड़े किसी को लगता है सोता है।।

तू ही बतला दे ये मुझको  , कैसा स्वेटर लाये,
नाप हो उसकी इतनी पक्की तुझे रोज हो जाये।।

रचयिता
गीता गुप्ता "मन"
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय मढ़िया फकीरन,
विकास क्षेत्र बावन,
हरदोई।

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