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छत

जब गांव अपने हाथों में मुहब्बत की पोटली लेकर शहरों की रफ्तार के पीछे भागने लगे तो गांव के कुछ घने मकानों को लोग कस्बे के नाम से जानने लगे। घने मुहल्ले में भी लोग दूसरे की ख़ैर ओ खबर रखे तो लगता है कि अभी गांव छूटा नहीं। लेकिन चौराहे की अफरा-तफरी  के बीच जब गांव छिपने लगे तो मान लिजिये कि गांव भी अब अपनी केंचुली बदलकर शहर की तरह चमकीला और फुर्तीला होने जा रहा है।

ऐसे ही एक कस्बे के पुराने बाशिंदे जुबैर खान पिछले साठ सालों से इस कस्बे के राज़दार हैं। उनके वालिद शौकत मियाँ लगभग बासठ साल पहले से इस कस्बे में बसे । हालांकि उस वक्त यह गांव ही था, लेकिन वक्त की करवटों ने इसे संकरा और घना बना दिया। शौकत मियाँ कस्बे के एक चौराहे पर ताला मरम्मत का काम करते थे। शौकत मियाँ की कमाई ऐसी नहीं थी कि कस्बे में कोई इमारत खड़ी करें लेकिन पांच बच्चों की परवरिश किसी इमारत से कम थोड़े थी! जुबैर मियाँ उनके बच्चों में तीसरे पर थे। जुबैर स्कूली पढ़ाई तो दर्जा आठवें तक ही पढ़े लेकिन जवानी की दहलीज पर ही उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को समझा और अपना पुश्तैनी काम छोड़ एक घड़ी की दुकान पर घड़ी मरम्मत के काम में जी लगाये और देखते ही देखते घड़ीसाज बन गये। कस्बे के मशहूर घड़ी की दुकान पर किनारे एक कुर्सी मेज जुबैर अली की लगने लगी।
दुबला-पतला शरीर, गंगा-जमुनी दाढ़ी...दीन और दुनियावी जानकारी के बीच एक संजीदा शख्स का नाम था जुबैर अली। वैसे तो जुबैर अली दिलशाद तबीयत के शख्स थे। लेकिन घड़ी कारीगरी में, आँखों से बारीक पुर्जों की निगरानी में जुबां ने खुदबखुद खामोशी अख्तियार कर लिया। ऐनक से नजर उठाकर ग्राहक को सुनना लेकिन ऐनक को घड़ी की पहरेदारी में लगाकर रखना उनकी खास आदत थी।
जुबैर मियाँ के वालिद को गुजरने के बाद घर के रहन-सहन में फर्क जरूर आया लेकिन माली हालत बहुत न बदली। कस्बे की सैकड़ों छतों के बीच जुबैर अली का पुराना खपरैल का मकान उनकी कमाई की जद्दोजहद का सबूत पेश करता था।
बाहर बरामदा, अन्दर छोटा सा आँगन, एक किनारे गुस्लखाना जिसकी दीवारें इतनी ऊंची की कोई छत पर से मुंडी भी न देख सके.. मुहल्ले की सभी छतें सटी हुई थी। केवल नहीं सटा था जुबैर अली का खपरैल, हर छतों से लगभग तीन फीट छोटी दीवारों पर टिकीं खपरैल की झुकी हुई ढाल मानों झुककर आसपास की छतों को सलाम कर रहीं हों। खपरैल के मकान के भीतर कुरान लेकर बैठी उनकी बूढ़ी अम्मी, उनकी जिम्मेदार बेगम जमीला और उनके तीन बच्चो की शैतानियाँ देखी सुनी जा सकती थी। बच्चों में सोलह साल की सना, तेरह साल का राशिद और पांच साल के फरहान के बीच जुबैर अली अपनी गृहस्थी और जिम्मेदारियों को लेकर घड़ी की सुईयों की तरह 'टिक-टिक' लगातार चल रहे थे।
खपरैल के मकान के किनारे-किनारे सटी छतों पर से खड़े लोग जुबैर अली के आँगन में झाँकते दीख जाते । ऐसा नहीं था कि जुबैर मियाँ इस बेपर्दगी से वाकिफ़ न थे, लेकिन उसको रोक पाने का अख्तियार उन पर न था। खपरैल के भीतर आँगन और रसोई तथा बरामदे से लेकर गुस्लखाने तक की आहट पर छतों के कान लगे रहते थे। इन सब के बावजूद जुबैर मियाँ अपने रहते अपनी निगाहों से लगातार यह इल्म कराते रहते कि तुम्हारा झांकना और देखना हमें पसंद नहीं।
सना जब से सयानी हुई तब से उसे लगने लगा कि कुछ लोग खपरैल के भीतर कुछ 'और भी' झांककर देखना चाहते हैं। कुछ लोग अपनी छतों पर बेवज़ह भी चढ़ा करते थे शायद अपनी छत पर से किसी के दिल में भी उतरने की ख्वाहिश पाल बैठे थे।
नसीम की पतंगबाजी का भी चस्का भी बिल्कुल नया था। वैसे उसे देखकर, कोई भी बता देता कि उसे पतंगों की बिल्कुल भी परवाह नहीं। अरे! वह कौन सा पतंगबाज होगा जो केवल अपनी पतंग कटने के लिये पतंग उड़ाये! लेकिन जब आंख और पतंग दोनो से एक साथ पेंच लड़ायेगें , फिर पतंग तो कटनी ही है।

लड़कियां जब जवानी की दहलीज़ पर बढ़तीं हैं तो शर्म भी उनकी पल्लू से लिपटा जवां होने लगता है। सना को अब छोटी-मोटी बातों पर शर्म आने लगी थी। अम्मी का छतों की परवाह किये बिना सना को डाँटना, फरहान का एक बिस्कुट के लिये रोना-चीखना, चाय में रोटी डुबोकर खाना, आँगन की सुखवन, दादी का खांसना और अपने खटिये के बराबर में थूकना।
ऐसा नहीं था कि जिनके सिर के ऊपर छत लगे थे उनके घरों के भीतर शाही दस्तरखान बिछते थे..या वहाँ बर्तन नहीं खनकते थे ! बस उन्हें देखने वाला कोई न था और खपरैल के आँगन में लोग झांक लेते थे।
बरसात के दिनों में खपरैल के जिस्म को तर करके रूह तक उतरना,हर कमरों और बरामदों में पानी की बूंदों का चुहचुहाना और जुबैर भाई का भीगते हुए खपरैल पर पन्नी लगाना सना को शर्मिंदा करने वाला पल होता था। हर साल खपरैल की मरम्मत और सबसे बड़ी परेशानी पूरे कस्बे में टूटे हुए खपरैल की जगह नये खपरैल लगाने के लिये खपरों का जुगाड़ ऐसे ही था जैसे किसी गरीब मरीज़ के लिये दो बोतल खून। दरअसल कस्बे में इक्का-दुक्का खपरैल के मकान थे। कौन सा कुम्हार खपरैल ढालता भला! जुबैर मियाँ को अगर कहीं खपरैल दीख जाता तो वह अगली कई बरसातों का प्रबन्ध कर लेते थे।
ऐसा भी नहीं था कि लोग छतों पर से  गुस्लखाने की दीवार चीरकर अन्दर झांक लें।  गुस्लखाने की दीवार और दरवाज़े की ऊंचाई इतनी कम न थी कि किसी की नजर भी मिल सके फिर भी गुस्लखाने से नहा करदरवाज़े से निकलना और आँगन पार करना कठिन होता था सना के लिये। शर्म यह नहीं थी कि वह गुस्लखाने से निकल रही है शर्म यह थी कि देखने वाले अपनी नजरों में नंगी चित्रकारी कर रहे होंगे। यही डर उसके कदम तेज और नजर नीची कर देती थी। यहाँ तक की भीगे बालों से भीगे हुए सलवार को भी इनकी निगाहों से बचाकर निकलना पड़ता था कि गीले कपड़ों में से शरीर न झलक आये। दुपट्टा हर वक्त हाथों के इशारों पर तमीज़ से कन्धे पर टंगा रहता।
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एक दिन रात को दुकान से लौटने के बाद हाथ-मुँह धोकर  जुबैर अली  दस्तरखान पर बैठे, अभी दो निवाले तोड़े ही थे तभी उनकी निगाह कमरे में लेटी सना पर ठहरी। "क्या हुआ! सना की तबीयत तो ठीक है?" जुबैर अली सना की अम्मी की तरह मुखातिब होकर पूछे।
"कुछ नहीं बस यूँ ही मुंह फुलाकर बैठी है" पंखा झलते हुए जमीला ने लापरवाही से कहा।
"ऐसा नहीं है! सना तो समझदार लड़की है ऐसे ही क्यों नाराज होगी..जरूर कोई बात होगी।" जुबैर अली ने जोर देकर कर जमीला को पूछा।
"हुआ यूँ कि आज मुहर्रम के आठवीं का जलूस है और सना हर साल रिजवान भाई की छत पर से आठवीं का जलूस देखने जाती है। इस साल तो उसने सलमा से दोपहर को ही बोल रखा था कि अप्पी रात को तुम्हारे घर आऊंगी, छत से ताजिया देखने। लेकिन बहुत दरवाज़ा खटखटाने के बाद भी सलमा ने दरवाज़ा नहीं खोला तो बेचारी आँख में आसूं लेकर शर्मिंदा होकर लौट आयी। मुझे भी बहुत पूछने पर बताया और फिर रोते हुए पूछा कि अम्मी अपने घर कब छत लगेगी?" इतना कहते ही जमीला उठकर आंगन में चलीं गयीं..
जुबैर मियाँ ने मुश्किल से दो रोटी खायी और उठकर अपने बिस्तर पर चले गये। आज की रात में नींद कम, करवट और बेचैनी ज्यादा थी। सुबह तड़के उठे और दातुन-मंजन करके साईकिल से बाज़ार की तरफ निकले और एक घंटे में एक ट्राली के साथ लौटे। ट्राली ईटो से लदी। सुबह-सवेरे जुबैर मियाँ के घर अव्वल ईंटों का चट्टा बिछने लगा। घर में सरगोशी दौड़ गयी। जमीला, अम्मी से लेकर सना,राशिद, फरहान सब ईटों के चट्टे में ही छत का ख्वाब देखने लगे। हांलाकि रातोंरात जुबैर मियाँ की हैसियत छत बनवाने की तो नहीं हो गई लेकिन ईटों की खरीदारी से उन्होंने सना को इत्तला कर दिया कि बेटा, तुम्हारे आँसूओं और शर्मिंदगी को मैंने महसूस किया।

ईंट गिरने के बाद घर के भीतर छत लदने की चर्चा होने लगी और चर्चा में रुपयों का जिक्र सबसे ज्यादा। छत के लिये जरूरी था रूपयों का इंतज़ाम, कम से कम डेढ़ दो लाख में एक छोटी सी छत लदती। कुछ पैसे थे भी लेकिन बच्चों के परवरिश, उनकी तालीम और सना के निकाह की फिक्र जुबैर मियाँ के हाथ में हथकड़ी लगा देती थी। ईंट गिरने के तीन महीने गुजर गये चट्टे पर काईयाँ लग गयीं। मुहल्ले के लड़के क्रिकेट खेलने के लिए दो-चार ईंटें उठाने भी लगे । कई मर्तबा तो ईंटों के वजह से झगड़े-टंटेे भी हुए। फिर तीन महीने गुजरने के बाद एक वो दिन  भी आया कि बुनियाद खोदने के लिये दो मजदूर लगे। अब घर में तसल्ली हुई की मकान बनने का काम शुरु हो गया। एक कमरे और बरामदे की बुनियाद और दीवार खड़ी करने में दो महीना लग गया ऐसा नहीं था कि वह दो महीने का काम था , लेकिन पैसों का बन्दोबस्त इतना कठिन था कि कभी एक मिस्त्री और दो मजदूर भी बराबर काम पर न लग सके। दीवारों की चिनाई ने रसोई से लेकर पढ़ाई तक के खर्चों के हाथ बांध दिये । फिर भी छत का ख्वाब सब्जियों की कमी पर भारी पड़ा।
दीवार खड़ी करने के बाद छत लदने का काम केवल एक दो दिन का था लेकिन उस पर बिछने वाला खर्चा जुबैर मियाँ के लिये चुनौती थी। काम तब तक ले लिये रोक दिया गया जब तक एक मुश्त पैसों का इन्तज़ाम न हो जाये। हाँलाकि जुबैर मियाँ ने कमाई और बचत की सारी कोशिशें लगा दीं लेकिन रोजमर्रा के खर्चे पर छत के ख्वाब में दखलंदाजी कर जाते।
दीवारें सालों-साल खड़ी रहीं दीवारों पर हरी काईयाँ और धुंएँ की कालिख उसकी बढ़ती उमर की मुहर लगाने लगीं। ऐसा नहीं था कि उन दीवारों पर छत न लगी! लगी.... लेकिन केवल बकरियों के लिये कंधे तक की छप्पर और मुर्गियों के लिये कमर तक की ईंटों के दड़बे में टीन की छत पड़ी। ऊपर की दीवाल सात साल नंगी , बिना छत के पड़ी रही। जुबैर मियाँ चाहते तो चार-छह हजार रुपये खर्च करके दीवारों पर टीनशेड डालकर एक कमरा घेर सकते थे लेकिन वो ऐसा करके सना की उम्मीदों की छत ढाहना नहीं चाहते थे।
वक्त यूं ही गुजर गया और सना के निकाह की फिक्र छत की फिक्र पर पर्दा डाल गई। उधर राशिद सऊदी जाने के लिये अपने अब्बू पर दबाव डालने लगा। राशिद भी चाहता था कि विदेश से कमाकर लौटें तो सबसे पहले छत लदवायें और अब्बू के लिए मददगार बनें।
दो तीन साल के भीतर दो बड़े कामों में छत का ख्वाब, ख्वाब ही रह गया और जुबैर मियाँ सना के लिये लड़का देखने में लग गये। साल भर की मेहनत के बाद लड़का तो मिला वह भी  होनहार.. लेकिन उसके घर की माली हालत अभी उतनी माकूल नहीं थी। लड़के के वालिद उसके बचपन में ही गुजर गये थे और लड़का बम्बई में फर्नीचर का बढ़िया काम करता था। उसके ऊपर भी घर पर एक पक्का मकान बनवाने की जिम्मेदारी थी। हालांकि जुबैर मियाँ चाहते थे कि सना को पक्के मकान में विदा करें लेकिन लड़का इतना होनहार था कि उन्हें यकीं था कि बहुत जल्द ही उनकी सना छत के नीचे रहेगी और कचोटते मन से सना का निकाह नूर आलम से तय कर दिया।
सना के निकाह में सिर्फ एक बार दीवारों पर  छत पड़ी वह भी शामियाने की। शामियाने से छन कर धूप जब नीचे उतरी तो सना के चेहरे और शादी से जोड़ें से घुलकर और तेज हो गई। सना का निकाह उन्हीं दीवारों के बीच पढ़ा गया जिनकी दीवारें पर कभी छत न बिछ पायीं और ऐसा लग रहा था जैसे दीवारें सना से शर्मिंदा होकर कह रहीं हो कि "'सना तुम जा रही हो और हम तुम्हारी हसरत पूरी किये बिन, लाचार खड़े हैं। हम शर्मिंदा हैं सना।"
सना खपरैल से निकल कर खपरैल में बिदा हो गई लेकिन जुबैर मियाँ के दिल का मलाल उनके दिल से विदा न हो सका।
राशिद को भी अप्पी के निकाह का इन्तज़ार था। सना के निकाह के बाद राशिद सऊदी जाने की तैयारी में लग गया और सना के जाने के तीन महीने के अन्दर ही राशिद कुवैत चले गये। जुबैर मियाँ की जिम्मेदारी तो खत्म हो गई फिर चार लोगों के साथ दुकान और खपरैल के मकान में जिन्दगी चलने लगी।
सना ससुराल से अम्मी-अब्बू का हाल हमेशा लेती रहती। मम्मी से राशिद के निकाह का जिक्र करती तो अम्मा कहतीं कि 'राशिद कहता है कि अम्मी घर तभी आऊंगा जब तक पूरा मकान पक्का नहीं बना लूंगा। इतना जिद्दी है की मानता ही नहीं। निकाह भी मकान और छत के बाद ही करेगा।' सना ससुराल में है लेकिन अभी भी पक्के मकान और छत का ख्याल उसके चेहरे को रौशन कर देता है।
दो साल बीत गये जाड़े की सुबह जुबैर मियाँ की कुछ तबियत बिगड़ी, सीना तेज धड़कने लगा , आवाज़ बन्द हो गई । आनन फानन में डाक्टर के पास पहुंचाया गया । डाक्टर ने जान तो बचा ली, लेकिन उच्च रक्तचाप के कारण जुबैर हल्के फालिज के चपेट में आ गये। हांलाकि झटका हल्का ही था लेकिन आधा अंग कमजोर हो गया और काँपने भी लगा। फालिज के झटके से जुबैर मियाँ अपनी देखभाल तो कर लेते लेकिन अब उनके हाथ घड़ी के महीन पुर्जों को सम्भालने लायक नहीं रह गये। दुकान छूट गयी और बचे हुए वक्त को जुबैर मियाँ ने खुद को अल्लाह की इबादत में सौंप दिया।
घर की खर्ची के लिये अब राशिद की कमाई कम थोड़े ही थी लेकिन जुबैर मियाँ थोड़े बुझे-बुझे से रहने लगे। व्यक्ति जब लाचार हो जाये तो उसे बैठकर खाना भी चुभता है भले ही औलाद ही क्यों न दे रही हो।

राशिद इस बार घर लौट रहा है लेकिन अबकी उसकी छत बनकर तैयार है । अब्बू की दीवारों के बाद भी और चार कमरों के दीवारों की चिनाई हुई। खपरैल का नामोनिशान मिट गया। कस्बे की कई छतों से एक छत और जुड़ गई 'जुबैर मियाँ की छत'।

राशिद के घर आने के बाद सना भी पहली बार अपने मायके आयी। उसे ठीक से यह भी खबर न थी कि अब्बू को फालिज की दिक्कत हो गयी है। रिक्शा जब जुबैर मियाँ के दरवाजे पर रूका तो उसकी निगाह अपने मकान और छत पर दौड़ने लगी और तेज कदमों से घर में दाखिल हुई.. अपने शौहर को रिक्शे पर ही छोड़कर। सना एक ही बार में सब कुछ देख लेना चाहती थी। आँगन कहां गया..? रसोई कहां बनी? सीढ़ी कहां से उठी? अम्मी का कमरा, बैठक! सोच रही थी कि चिल्ला कर कह दे कि "देख लो सलमा अप्पी मेरी भी छत लद गई। मुझे नहीं आना जलूस देखने तुम्हारी छत। नहीं खटखटाना घंटों तुम्हारा दरवाज़ा। मैं भी तो देखूँ कि जो तुम मेरे आँगन में झांकते थे क्या तुम उस लायक थे भी या नहीं, अब मैं भी तुम्हारे छतो की सुखवन पर नजर रखूंगी मैं भी तुम्हारे बर्तनों की खटपट को सुनूंगी"
तभी पीछे से आवाज आई "सना! कब आई बेटा?" अम्मी ने हाथ पकड़ कर चूमा।
"सलामअलैकुम अम्मी! अभी आ ही तो रही हूँ !! मकान देख रही थी अम्मी।" सना ने चहकते हुए कहा।
"वालेकुम अस्सलाम...तेरा मन अभी भी छत और मकान से जरा भी नहीं हटा पगली" अम्मी ने सना गाल पर चपत लगाई।
"अब्बू कहाँ है अम्मी" सना ने ढूढ़ती निगाहों से अम्मी से पूछा।
"शाम के वक्त से तेरे अब्बू छत पर ही रहते हैं, सोने के वक्त नीचे लाती हूँ उनको"
अम्मी की बात पूरी होने से पहले ही सना तीन सीढ़ियाँ चढ़ चुकी थी। छत पर पहुचंते ही तेज़ी से चलकर अब्बू के करीब जा के ठहरी।
"सलामअलैकुम अब्बू"
सना की आवाज़ कान मे घुलते ही जुबैर मियाँ के शरीर में हलचल सी हुई। आंख खुलते ही, जुबैर मियाँ बैठने के लिये हथेलियों से जोर लगाते हुए धीमे से बोले "वालेकुम अस्सलाम"
"लेटिये अब्बू" सना ने अब्बू के कन्धे पर हाथ रखकर सहारा दिया।
लेकिन जुबैर मियाँ सहारा पाकर बैठ गये।
" अब्बू कितने दुबले हो गये आप ? और आपकी तबियत इतनी खराब थी और मुझे ठीक से इत्तला भी न किया आप लोंगों ने।
" ठीक हूँ मै" जुबैर मियाँ ने नजर चुरा कर कहा। फालिज के वजह से आवाज़ लड़खड़ा गयी। चेहरे का भाव भी वह नहीं था जो सना अब्बू के चेहरे पर छोड़ गयी थी।
सना ने बात पलटी " अब्बू कितने मजे से छत की हवा ले रहें न ! इतना अच्छा लगा आपको छत पर लेटा देखकर।

जुबैर मियाँ कुछ बोलते उसके पहले ही दोनों आंखों से दो बूंद आंसू लुढ़क कर गालों के रास्ते दाढ़ी में गुम हो गये।
कांपते होठों से बोले " बेटा जब औलाद को छत न दे सका तो अपने लिये छत क्या....खपरैल क्या... जितनी बार छत पर चढ़ता हूँ लगता है मानो तू मुझे ताने दे रही है। बेटा खुदा गवाह है कि मैं चाहता था कि तुझे छत के नीचे से विदा करूँ लेकिन मैं न कर सका बेटा" अब आंसू जुबैर मियाँ के गालों पर लकीर बनाकर बहने लगे।
सना ने लपककर अब्बू का हाथ थाम लिया और भर्राए गले से बोली " न रोईये अब्बू! हमारी छत तो आप हैं ! जब तक आप ज़िन्दा हैं तब तक मुझे किसी और छत की जरूरत ही नहीं। आपका हाथ जब तक मेरे सिर पर है तब तक मेरे अन्दर गुरूर रहेगा कि मैं जहाँ भी हूँ मेरे अब्बू छत की छाया बनकर मेरे ईर्द-गिर्द हैं।"
जुबैर मियां बेबस निगाहों से अपनी लाडली को निहारते रहे और दोनों की आंखें लगातार बरसती रहीं । फर्क बस इतना ही था कि जुबैर मियाँ छत पर लेट कर शर्मिंदा थे और सना अब्बू के छाया में बेखौफ, बेपरवाह !

लेखक
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
 

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