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सुन कश्मीर हमारा है।

देशद्रोह ने स्वर्ग धरा का,
क़ब्रिस्तान बना डाला।
वादी में आख़िर क्यों छाया,
दहशत का साया काला।
अपने वीर जवानों की हम,
कब तक क़ुर्बानी देंगे।
ग़द्दारी की ज़हर बेल को,
पोसेंगे- पानी देंगे।

कौन बो रहा बीज द्रोह के,
कौन मिला ग़द्दारों से।
कौन दिशा देता है उनको,
दुश्मन के गलियारों से।
कौन प्राण का मोल लगाकर,
तोल रहा हथियारों से।
सज़ा मिले ग़द्दारों को अब,
कहना है सरकारों से।

हमने ही वो नाग  विषैले, 
आस्तीनों में पाले हैं।
उजले कपड़े धारण करते,
पर अंदर से काले हैं।
मासूमों का ख़ून बहाकर,
गले तलक जो डूबे हैं।
मिलकर हमे निबटना होगा,
जो उनके मंसूबे हैं।

मुल्क़ हमारा दुश्मन है वो,
लेकिन बाप तुम्हारा है।
भारत छोड़ो ग़द्दारों तुम,
दुश्मन तुमको प्यारा है।
तुम जैसे श्वानों ने फिर से,
सिंहों को ललकारा है।
वक़्त अभी भी ज़रा सँभल जा,
सुन कश्मीर हमारा है।

रचनाकार- निर्दोष कान्तेय
काव्य विधा- ताटंक छन्द

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