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हमारी सादगी कब तक !!

फ़रेबो झूठ की दुनिया निभाऊँ सादगी कब तक।
बदलते रहनुमाओं की करूँ दीवानगी कब तक।

मुझे वो भूल बैठे हैं गए जो छोड़ के तनहा,
पुरानी याद के दम पर कटेगी ज़िन्दगी कब तक।

किसी का क्या भरोसा है किसी से अब तवक़्क़ो क्या,
रहें यूँ हाथ क्यूँ फैले भला बेचारगी कब तक।

ठिकाना कोई तो होगा जहाँ दो पल सुकूं के हों,
मैं अब थकने लगा यारों रहे आवारगी कब तक।

दुआ ये आख़िरी तुमसे ख़ुदा मेरे करम करना,
नहीं तो क्या पता ज़िन्दा रहेगी बन्दगी कब तक।

रचना- निर्दोष 'कान्तेय'

(वज़्न- 1222 ×4)

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