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प्रकृति

    हे ! मनोरम प्रकृति , तुम्हे प्रणाम
   आँचल में तेरे कितना कुछ
   दिया है जन - जन को सब कुछ..
हरियाली से भरा हुआ है
धरती का कोना - कोना
देख भ्रम सा होता है
बिछा हुआ हो ज्यों
मखमली हरा सा बिछौना ।
खड़े है तरु शीश उठाकर
पत्तियां लहराती है हवा पाकर
टहनियों पर बैठे विहग
कलरव करते प्रतिक्षण
मन को मुग्ध करते आये
रंग - बिरंगे फूल मुस्काये
उन पर तितलियाँ मंडराए
देख दूर से छटा निराली
मन -उपवन प्रतिक्षण मुस्काये
हिंडोले ले लेकर ....
डोलने लगी मधुर बयार,
खिल उठे ह्दय सारे
खिल उठे फूल हिम और पात ।
      गहरे धुँधले काले- काले
     मेघो में खोये नयन सारे
     उमड़ पड़ा है फिर से मन में
     अपार भावों का गंगाजल
      देख दूर क्षितिज पर
      सूर्य ज्योति संग होता ओझल
       सिमटा के सांझ की लाली
       बिखर पड़ी दूधिया उजियारी
वृहद श्यामल ज्योत्स्ना फिर
फैलाएगी किरणों की लाली
आनन्दित वेगित सा मन!
करता मौन रूप में इंगित
   " वेढू सा गुँजित होता है 
     प्रकृति का ये लौकिक स्वर "

रचयिता
दीप्ति राय, स0 अ0
प्राथमिक विद्यालय रायगंज
खोराबार, गोरखपुर
  खोराबार गोरखपुर


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