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खा गए वो छुट्टियां..

एक ग़ज़ल अपनी सी..
खा गये वो छुट्टियाँ अरमां हमारे मार के।
सुन रहे मजबूर हो ताने मियाँ परिवार के।
तुगलकी फ़रमान आयें है बड़ा मजरूह दिल,
मौन आँसू कह रहे हैं ज़ुल्म इस सरकार के।
उठ गया मेरा भरोसा यूनियन मैं छोड़ दूँ,
काम कुछ होता नहीं ये ख़्वाब हैं बेकार के।
शिक्षकों की रहनुमाई के बड़े वादे किये,
हैं कहाँ जी.ओ. तुम्हारे गुलशनो गुलज़ार के।
ज़िन्दगी का हल मुझे निर्दोष लगता है यही,
साधु बन के तोड़ दूँ बंधन सभी घरबार के।
ग़ज़लकार- निर्दोष कान्तेय

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