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फसल और सपने

नई कुछ उम्मीदें कुछ सपने उगाता
आशा के हल को जमीं पर चलाता।
कड़ी मुश्किलों से गुजरता चला हूँ
सूखे में भी आस भरता चला हूँ।

पानी उधारी जमीं से लिया हूँ
सिंचाई के कर्जे से लद सा गया हूँ।
सभी मेरे सपने फसल से जुड़े हैं
फसल ही नहीं है,ये हैं आशा की किरणें।

मेरी मां की इसमें, दवाई छिपी है।
बच्चों की सारी पढाई, छुपी है.....
है बड़ा यज्ञ करना फसल के भरोसे
इसी वर्ष बिटिया की, शादी लगी है।

है कर्जा चुका कर बहुत काम करने
शादी, लगन में गढ़ाने है गहने
बच्चे,बहू सबको कपड़े हैं देने
नतिनी के मुण्डन में,कंगन है लेने।

फसल के लिये पाई-पाई लगी है
इसी के लिये घर की बछिया बिकी है।
गेहूं के दम पर है नई गाय लाना
बच्चों को है, दूध-अमृत पिलाना।

चिंगारी कहीं से उड़ा के न लाये
यह पछुआ पवन मेरी नीदें उड़ाये।
इसी डर से खेतों में धड़कन छुपी है
खेतों पर दिनभर लगी टकटकी है।

नहीं धान-गेहूं, और न ही फसल है
आशा है मेरी,यही मेरा  कल है।
प्रतिष्ठा है मेरी,है वचन मेरे इस पर
फसल ही नहीं है डोर जीवन की मेरी!!


रचनाकार
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रिवेश प्रताप सिंह

जनपद गोरखपुर
के प्रा० वि० परसौनी में कार्यरत हैं। 

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