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आह रे... बचपन का वो जमाना


बीत गये बचपन के वो पल
टूट गया वो स्वप्न पुराना,
छूट गया रथ सोने जैसा
छूट गया खुशियों का खजाना।
वाह रे बचपन का वो जमाना
आह रे बचपन का वो जमाना !
वो, नीम कौड़ी की खाट बनाना
वो, उनकी छत से पतंग उड़ाना
तीली से वो धनुष बनाना
सींकों के वो बाण सजाना।
मिट्टी के थे खेल- खिलौने
बिकते थे सब औने पौने,
हुर्र-कबड्डी आइस-पाइस
चार आने में सजे नुमाइश।
गिल्ली- डंडा ओला-पाती
कितनी कोमल चिकनी माटी,
कंचे गोली लत्ती-लट्टू
जीवन का था यही खजाना।
अक्कड़-बक्कड़, चोर सिपाही
चिड़िया उड़ और घघ्घो रानी,
विष-अमृत में मर जी जाना
हांफ-हांफ कर दौड़ लगाना।
पेट लगाकार नल को चलाना
नल के मुंह से मुंह का लगाना,
और घट-घट पानी पीते जाना
जैसे प्यासे को सागर मिल जाना।
सुबह से शादी में सज जाना
शाम से पहले ही थक जाना,
बाराती आने से पहले
दादी पास कहीँ सो जाना।
गौरैया, खांची से फँसाना
भरी धूप डग्गा ढुगराना,
जमीं धूल पर कुछ लिख जाना
चुक्कड़ पर यूं दांत लगाना।
कदम को गिन स्कूल को जाना
छुट्टी पर ही ध्यान लगाना,
कमर पे स्वेटर बांध के आना
चूरन चाट-चाट पछताना।
चियां गिनकर गोट बनाना
कुसली घिसकर शंख बजाना,
नरखे में भूजा गठियाना
भूजकर आलू,राख छुडाना।
पिल्ले का बस कान पकड़ कर
चोर शाह का फर्क बताना,
कानी उंगली से बभनी को
छूकर पूंछ धनी हो जाना।
पूछ न बैठे कठिन पहाड़े
ऐसे नातों से कतराना,
और निकल कर जाते ही बस
बची मिठाई चट कर जाना।
लड़ा के पंजा दम दिखलाना
सांस रोककर खुद अफनाना,
चिक्का,कुश्ती, मार-कलइया
माटी, माथे तिलक लगाना।
बात बात पर अमरख जाना
अंहक अंहक कर दर्द बताना,
मान-मनौव्वल पर इतराना
घर भर से कुट्टी कर जाना।
वाह रे बचपन का वो जमाना
आह रे बचपन का वो जमाना।

रचनाकार
रिवेश प्रताप सिंह
जनपद गोरखपुर
के
प्रा० वि० परसौनी
में कार्यरत हैं। 

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