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करवा चौथ-प्रेम उत्सव या लिंग भेद ?

ये मौसम जबकि पत्ते झड़ते हैं,गुलाबी सर्दियाँ द्वार पर खड़ी मुस्कुरा रही होती हैं,ऐसे प्रेम लुटाते मौसम में उत्तर भारत की हवा में दीवाली के दिये जलने से पहले करवा चौथ का त्यौहार अपनी महक बिखेर देता है।मौसम में प्रेम की जो कुछ कमी रह जाती है वो करवा चौथ का पर्व न सिर्फ पूरी करता है बल्कि प्रेम पर्व का सामूहिक उत्सव मनाने पर हमें मजबूर भी कर देता है।
ऐसे में जब कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पुरुष या महिलाएं करवा चौथ को लिंग भेद या स्त्री विरोधी प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो क्षोभ भी होता है और पीड़ा भी कि किस और पर्व में प्रेम का ऐसा पवित्र अनुष्ठान होता है? कहीं चाँद को देख के बेचारे निरीहों पर सामूहिक मृत्यु आती है तो कहीं चाँद सिर्फ moon walk भर के लिए जाना जाता है,हम चन्द्रमा को अपने प्रेम का साक्षी बनाते हैं।
व्रत के विधान के अनुसार महिलाएं भूखी प्यासी रहती हैं पर प्रथम तो हिन्दू धर्म में कोई व्रत ऐसा नहीं जो किसी को मजबूर कर दे कि जबरदस्ती निराहार रहा जाये।दुसरे ये व्रत रखने वाली महिलाओं की अपनी श्रद्धा और उनकी अपनी इच्छा है।एक तरफ जहाँ अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए तथाकथित बुद्धिजीवी सम्मान वापसी और राष्ट्र अपमान के अस्त्र लेकर ताल ठोक रहे हैं, वहीँ दूसरी तरफ ये करवा चौथ जैसे प्रेम पर्व की हंसी उड़ाते हुए व्रत रखने वाली स्त्रियों का उपहास उड़ाते हुए दिखते हैं।ये स्व-धर्म द्रोही और हिंदुओं से भयाक्रांत अधर्मियों की आदत हो गयी है कि हर हिन्दू पर्व में उन्हें कमियां निकालनी हैं और उनका उपहास उड़ाना है।
करवाचौथ का सर्वविदित पक्ष ये है कि महिलाएं सारा दिन पति की लंबी आयु के लिए  निर्जल उपवास रखती हैं,दिन भर रसोई में तरह तरह के पकवान बनाती हैं और साँझ को सोलह श्रृंगार करके पति का मुंह और चाँद को एक साथ देख के अपना व्रत खोलती हैं।पर क्या करवा चौथ का महत्त्व और उसके प्रति महिलाओं का छलकता उत्साह इस सर्वविदित पक्ष के कारण ही हो सकता है?सालों साल इस पर्व को हर वर्ष इतनी ऊर्जा और उत्साह से महिलाएं सिर्फ इसलिए ही तो नहीं मना सकतीं कि इससे पति की आयु लंबी हो जायेगी,जबकि सभी जानते हैं कि करवा चौथ मात्र ही किसी भी पुरुष की अमरत्व की गारंटी नहीं।ऐसा भी नहीं कि करवाचौथ को श्रद्धा से करने वाली कोई महिला असमय अपना पति खोकर विधवा नहीं हो जाती।ये तो व्रत करने वाली महिलाएं भी जानती ही हैं,सभी सामूहिक रूप से कमअक्ल या मानसिक रोगी तो नहीं हैं।
वास्तव में करवाचौथ के प्रति उत्साह और ऊर्जा उसके उस छुपे पक्ष में है जो महिलाएं लज्जा से और पुरुष अपने पुरषत्व के अहम् में बता ही नहीं पाते।सुबह उठते ही चाय न मिलने पर पत्नी का सर भारी होते देख अपनी माँ और अन्य पारिवारिक सदस्यों से छुप कर अपनी चाय पिलाते पति से मिलने वाले प्रेम की तुलना हो सकती है क्या?रसोई में काम करती पत्नी की तरफ बार बार देखते हुए पति की दृष्टी कि उसकी पत्नी का रक्तचाप सामान्य तो है न ! उसकी कनखियाँ पत्नी का रक्तचाप बढ़ने नहीं देतीं और हृदय की धड़कन सामान्य नहीं होने देतीं।उस समय हर महिला नवविवाहिता सा ही अनुभव करती है।यदि पति सामने नहीं है तब भी वह किसी न किसी माध्यम से तो अपना प्रेम और चिंता व्यक्त कर ही देता है।संदेसा भेज ही देता है कि सर दर्द हो तो कम से कम चाय पी लेना कोई जरुरत नहीं है सारा दिन मेरे लिए प्यास और भूख सहने की।और  इसी प्रेम के साथ आ जाती है असीमित ऊर्जा और ईश्वर पर श्रद्धा और भोला सा विश्वास कि मैं यदि सारा दिन निराहार रह कर ईश्वर से मांगू तो वे मेरे पति को दीर्घायु दे ही देंगे।असल में व्रत से पति को दीर्घायु भले न मिले पर वैवाहिक जीवन में प्रेम की आयु तो बढ़ ही जाती है।तीन तलाक का साहस हमारे यहाँ पति कैसे करे फिर भला?
प्रत्येक धर्म में निराहार रह कर अपने ईष्ट को पूजने का विधान है।रोजे रखने से इमान मुसलसल होता तो दुनिया में इतना खून ख़राबा होता?पर फिर भी रखते हैं न! तो पति के लिए प्रेम दर्शाते व्रत पर ही क्यों बुद्धि का घड़ा उलट देते हैं बुद्धिजीवी?
पत्नियां ही क्यों रखें व्रत, ये भी बड़ा धारदार प्रश्न है! वैसे तो हमने कभी पूछा नहीं कि ईद की नमाज में महिला पुरुष की सहभागिता क्यों नहीं?हमने ये भी नहीं पूछा कि कथित रूप से उपहार बाँटने वाला संता सफ़ेद दाढ़ी मूंछो वाला पुरुष ही क्यों?कोई महिला क्यों नहीं? महिला केंद्रित और कितने त्यौहार हैं और धार्मिक रीतियों में?शक्ति से लेकर सरस्वती तक और यज्ञ,अर्धनारीश्वर से लेकर यज्ञ-हवन में बिना पत्नी के पूजा सिद्ध न हो सकने तक हिन्दू धर्म में महिलाओं की सहभागिता सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है,ज्ञान चक्षु खोल के देखिये! रही बात व्रत की तो ये महिलाओं की अपनी प्रकृति है उनकी अपनी इच्छा है। बरखाओं और सगरिकाओं को उनका प्रेम समझ नहीं आता तो उन महिलाओं को भी आपके बहु-प्रेम और कुछ सालों बाद बदलते पति नहीं समझ आते तो वे मांगने जाती हैं क्या आपसे जवाब?तो किसी बरखा और किसी सागरिका को हमारे लिए संवेदनाएं रखने की आवश्यकता नहीं।आपकी गिरगिटिया संवेदनाएं हमें नहीं चाहिए।
अब उपहास का एक भाग ये भी है कि ये त्यौहार मात्र आभूषणों और लकदक करती साड़ियों का प्रदर्शन मात्र है तो आभूषणों और लकदक करती साड़ियों के प्रदर्शन से इतनी आपत्ति है तो रोज होते तमाम फैशन शो पर प्रतिबन्ध सबसे पहले लगने चाहिए। वहां क्या होता है? उनसे कोई आपत्ति होते देखा नहीं आज तक बुद्धिजीवियों को। सौंदर्य चाहे प्रकृति का हो,बाल लीलाओं का हो या स्त्री का हो वह तो है ही प्रदर्शन के लिए,और वह तो और निखरता ही प्रदर्शन से है।सौंदर्य प्रदर्शन को अंग प्रदर्शन के समानांतर रख के कुतर्क की चेष्टा न करें!
रोज बदलती प्रोफाइल फोटो,अपने घर,गाड़ी की फ़ोटो दिखाना,और करवाचौथ व्रत रखती स्त्रियों को बैद्धिक रूप से कमजोर दिखाते आपके विचार क्या आपका प्रदर्शन नहीं?प्रदर्शन अपने वैभव का और अपनी सड़ी मानसिकता वाली बौद्धिकता का!
प्रदर्शन तो चारों ओर है,हर जगह है।सनी लीओन का प्रदर्शन ठीक और कपडे,गहने पहने व्रत रखने वाली महिला का प्रदर्शन उपहास की विषयवस्तु?? Get well soon!
और यूँ भी ये व्रत सिर्फ प्रदर्शन कर सकने वाली ही नहीं बल्कि गाँवो और उन भद्दर देहातों की महिलाएं भी रखती हैं जहाँ पिछले छः दशकों से इस देश के और इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के पालनहार बिजली की व्यवस्था तक नहीं पहुंचा पाये हैं। उनके लिए ये व्रत प्रदर्शन का साधन नहीं पर फिर भी वे रखती हैं।आपके लिए नहीं,अपने पतियों के लिए अपने प्रेम के लिए।
और जहाँ प्रदर्शन होता भी है वहां तो अब पुरुष भी व्रत रखने लगे हैं अपनी पत्नियों के लिए और ध्यान दें इस का हमने मुक्त हृदय से स्वागत किया है,कोई फतवा जारी नहीं किया।जहाँ नहीं रखते वहां महिला को पता होता है कि वह पुरुष से शक्ति में श्रेष्ठ है तो पति से भी व्रत का दुराग्रह क्यों करे भला?जिन्हें अपनी शक्ति पर संदेह है वे करें पुरुषों से बराबरी।हम न तो प्रेम में बराबरी करते हैं न शक्ति में और दोनों में पुरुषों से भी  श्रेष्ठ  हैं और नारीवाद की ध्वज-वाहिकाओं से भी।

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