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कहाँ वो बात बाक़ी है

ज़माने में मुहब्बत की कहाँ वो बात बाक़ी है।
न हैं वो जाम उल्फ़त के न वो हमदर्द साक़ी है।
बहें जो अश्क़ ये ज़ाया इन्हें बेमोल मत समझो,
तुम्हे मालूम क्या इनकी बड़ी क़ीमत अदा की है।
न करते हम मुहब्बत तो बताओ और क्या करते,
नहीं अब छूटने वाली मेरी ये लत वफ़ा की है।
हुआ है क़त्ल भी मेरा हमीं ठहरे हैं' क़ातिल भी,
ग़मों की ये शिफ़ा है या किसी ने यूँ जफ़ा की है।
तुझे रहबर ने जो लूटा गिला निर्दोष मत करना,
भरोसा प्यार में करके बड़ी तूने ख़ता की है।
रचनाकार- निर्दोष कान्तेय
काव्य विधा- ग़ज़ल
वज़्न- 1222, 1222, 1222, 1222
(बहरे हज़ज़ मुसम्मन सालिम)

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