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एक समान शिक्षा एक कोरी कल्पना


    शहर के नामी गिरामी कान्वेंट स्कूल में प्रवेश दिलाना उतना ही कठिन है जितना एक सरकारी नौकरी प्राप्त करना ।सीमित छात्र संख्या और असीमित आवेदनों के चलते अपने नौनिहालों को प्रवेश दिलाने के लिए अभिभावक  मोटी रकम खर्च करने को हमेशा तैयार दिखाई पड़ते हैं । जो अभिभावक रकम खर्च करने में सक्षम नहीं है वो भी माननीयों की सिफारिश की वैशाखी के सहारे इन स्कूलों में प्रवेश की जुगत बना लेते हैं ।गाँव से शहर आकर बसे कम पढ़े लिखे लोग भी इंटरव्यू में पास होने के लिए कोचिंग क्लास अटेंड करते मिल जायेंगे  ।
           एक पिता को अपने बच्चे के अच्छे स्वास्थ्य से अधिक चिंता उसकी शिक्षा की है इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुझाव और निर्देशों को दरकिनार कर केवल दो ढाई साल के बच्चे को ही प्ले स्कूल में भेजकर उसका बचपन छीन लिया जाता है ।हर वर्ष खुलते नए महँगे पाँच सितारा सुबिधा युक्त स्कूलों की बड़ती संख्या के  बाद भी केवल 5 प्रतिशत अभिभावक ही प्रवेश की लड़ाई में विजय प्राप्त कर पाते है ।विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुरूप बताई गई प्रवेश आयु प्राप्त करने तक वह 4 कक्षा पास कर चूका होता है क्योंकि एक पैसे वाला सम्मानित नागरिक बनने की जंग जीतनी है उसे ।
       प्रति वर्ष बढ़ते खर्च के वावजूद कोई भी अभिभावक इन स्कूलों की फीस व्यवस्था और अवैध वसूली के खिलाफ शिकायत करने को तैयार नहीं है क्योंकि  उसे डर होता है कि कहीं उसके बच्चे को स्कूल से निकाल ना दिया जाए और उसका भविष्य ना ख़राब हो जाए । ये स्कूल वेहतर भविष्य की गारंटी होते है इसलिए इनमे प्रवेश दिलाना हर अभिभावक का सपना होता है और इसी का फायदा उठाकर इनकी फीस मनमानी होती है ।आज के दौर में एक बच्चे की स्नातक पढाई का खर्च एक साधारण शहर में भी 10 लाख से अधिक होता है जो महानगरों में 20 लाख तक पहुँच जाता है इसी फीस की दम पर एक प्रतिष्ठित कॉवेन्ट का शुद्ध मुनाफा 1 से 3 करोड़ रुपये प्रति वर्ष तक होता ।कुछ प्रतिष्ठित स्कूल श्रृंखलाएँ अपने नाम के इस्तेमाल के एवज में 5 लाख से 50 लाख रुपये विना कुछ किये कमा लेती है ।
         अच्छे निजी स्कूल की प्रवेश प्रक्रिया और सरकारी नौकरी के आवेदन की प्रक्रिया एक जैसी है जिसमे 1 पद के सापेक्ष हजारों आवेदक होते है क्योंकि इस प्रक्रिया में भविष्य के सुखमय सपनों की सम्भावना नजर आती है और इसी सम्भावना ने भारत में शिक्षा को कई लाख करोड़ का फलता फूलता उद्योग बना दिया है जिसमे प्रति वर्ष बृद्धि तय है ।
     शिक्षा अधिकार अधिनियम 6-14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का कानून है पर प्रश्न ये है कि इन निजी विद्यालयों में पढ़ने बाले छात्रों को निशुल्क शिक्षा क्यों नहीं जबकि इन विद्यालयों की स्थापना एक ऐसी प्रवन्ध समिति के द्वारा होती है जिसमें साफ़ लिखा रहता है कि प्रवन्ध समिति का गठन और संचालन नो प्रॉफिट नो लॉस के के आधार पर किया जायेगा साथ ही विद्यालय की मान्यता के समय यह हलफनामा भी प्रस्तुत किया जाता है कि प्रबंध समिति शिक्षा विभाग द्वारा जारी सभी आदेशों को मानने को बाध्य रहेगा ।
     निजी विद्यालयो का यह  संगठित तंत्र आज इतना मजबूत है कि अपनी दम पर किसी भी शिक्षा कानून में परिवर्तन करने की हैसियत रखता है।शिक्षा अधिकार कानून भी 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा की अनिवार्यता सख्ती से लागु करने की बजाय शुल्क प्रतिपूर्ति की वकालत कर अपनी लाचारी प्रकट करता नजर आता है जबकि नियमानुसार इस कानून के तहत निर्देश अनुपालन ना करने के कारण इन विद्यालयों की मान्यता प्रत्याहरण आसानी से की जा सकती है ।निःशुल्क और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए जब भी केंद्र सरकार कोई सख्त कदम अपनाने हेतु किसी समिति का निर्माण करती है उस समिति के महत्वपूर्ण पदों पर इन निजी विद्यालय के नुमाइंदे अपने लोग बिठा लेते है या इन समितियों के शीर्ष अधिकारी वो आईएस अफसर होते है जिनके पाल्य इन विद्यालयों में अध्यनरत होते है और उनके इन प्रवन्धकों और इनके संगठन से करीबी सम्बन्ध होते है ,ऐसे में इन सुधार समितियों का इन निजी विद्यालयों के हित में निर्णय जारी करना कुछ गलत प्रतीत नहीं होता है ।पिछले एक दशक में भारत वर्ष के जनप्रतिनिधियों का रुझान भी इस व्यवसाय में तेज़ी से बढ़ा है और उनका सैकड़ो करोड़ रुपया इसमें निवेश हुआ है ऐसे में विधायिका का इनके खिलाफ कोई विधेयक लाना संभव नहीं दिखता है ।
      अगर हम पूरी प्रक्रिया का अध्यन करें तो पायेगे कि पहले किसी क्षेत्र में शिक्षा विस्तार के लिए एक निजी स्कूल की स्थापना कर इस व्यवसाय को फलने फूलने का अवसर दिया जाता है और बाद में उसी जगह एक अल्प सुबिधायुक्त सरकारी विद्यालय की स्थापना कर सरकार अपनी पीठ थपथपाती है।पिछले एक दशक में गली मोहल्ले में खुले माध्यमिक विद्यालय ,निजी इंजीनियरिंग कॉलेज और प्रबंध संस्थान इसी सोची समझी रणनीति का हिस्सा है जबकि मेडिकल कॉलेज की कठिन शर्तों के चलते इनकी स्थापना बहुत कम हुयी है।
        इस सब कवायद के बाबजूद भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अभी दूर की कौड़ी है माध्यमिक स्तर पर शतप्रतिशत परीक्षा परिणाम प्रदान करने बाले इन विद्यालयों का परिणाम स्नातक स्तर पर न्यूनतम हो जाता है ।प्रतिवर्ष सैकड़ों इंजीनियर देने बाले ये स्कूल मेडिकल स्टूडेंट बनाने में सक्षम नजर नहीं आते है और प्रशासनिक सेवा में इनका योगदान शून्य नजर आता है जबकि दोनों सेवाओं में सामान्य परिवारों के ऐसे छात्र जो कम सुबिधाओं के स्कूलों में अध्यनरत है उनका दवदबा वर्षो से कायम है।ये सब जानते हुए भी धनाढ्य परिवार पांच सितारा सुबिधा बाले इन विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाना सामाजिक रसूख की बात मानते है और निम्न मध्यमवर्गीय लोग इस प्रतिस्पर्धा में शामिल होने के कुछ भी करने को तैयार है ।सामाजिक महत्व के शिक्षा अभियान में सरकार की उदासीनता के चलते भविष्य में भी अमीर और गरीब कभी साथ साथ अध्यन कर सकेंगे ये प्रश्न चिन्ह ही है।
      ताज्जुब की बात ये भी है कि सामान्य सरकारी स्कूल में पढ़कर आई ए इस बने अधिकारियों ने भी सरकारी शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष रूचि नहीं दिखाई है यहाँ तक की इस महत्वपूर्ण पद को धारित करने के बाद भी उन्होंने अपने मूल प्राइमरी स्कूल के लिए शायद ही कुछ किया हो ।ऐसी परिस्तिथियों में सिस्टम से वेहतर की उम्मीद करना व्यर्थ ही है।
   हाल फ़िलहाल एक समान शिक्षा पद्यति एक कोरी कल्पना ही लगती है ।

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