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दर्पण से क्या शरमाना

चादर अपनी उजली रखना इक दिन पी के घर जाना।
अंतस से तुम निर्मल रहना दर्पण से क्या शरमाना।
मन में करुणा की निर्झरणी अविरल बहती रहे सदा।
सत्यनिष्ठ जिह्वा हो तेरी वाणी हो बस प्रियंवदा।
नज़रें ख़ुद से मिला सको तुम ऐसे काम किये जाना।
अंतस से तुम निर्मल रहना दर्पण से क्या शरमाना।
लालच और स्वार्थ की कालिख दामन पे ना लग पाये।
जीवन का साफल्य इसी में परहित में यदि लग जाये।
पञ्च तत्व की नश्वर काया पुनः उसी में मिल जाना।
अंतस से तुम निर्मल रहना दर्पण से क्या शरमाना।
धर्म कर्म के पथ पर चल कर सम्पति वैभव मान रहे।
मिथ्या भौतिकता है प्यारे बात सदा यह ध्यान रहे।
सब कुछ छूट यहीं जाना फ़िर क्या खोना औ क्या पाना।
अंतस से तुम निर्मल रहना दर्पण से क्या शरमाना।
रचनाकार - निर्दोष कान्तेय
काव्य विधा- गीत

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