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जाने क्यों....

जाने क्यों चातक की बोली, गोली सी मुझको लगती है।
चलती है बैरन पुरवाई, तन मन में ज्वाला भरती है।
मेरे नैनों की बारिश से, अब बादल भी शर्माता है।
मेरा चन्दा परदेश गया, ये दोखी चाँद चिढ़ाता है।
किस भाँति करूँ दर्शन उनके, ये चिंता खाये जाती है।
वे सपनों में ही मिल जाते, पर नींद कहाँ अब आती है।
प्रभु हाथ जोड़ विनती करती, प्रीतम जल्दी से आ पाये।
या मुक्ती दो इस पीड़ा से, काया से प्राण निकल जाये।
रचनाकार- निर्दोष दीक्षित
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काव्य विधा- मत्त सवैया छंद (राधेश्यामी छंद)
शिल्प- चार चरण, दो अथवा चार चरण में तुकांतता, प्रत्येक चरण में 32 मात्रा 16-16 मात्रा पर यति। चरणान्त गुरु।

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