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नफ़रत जीत गया हूँ

आज मुझे लगता है जैसे,
सदियाँ बीत गई हैं ।
आह !
मेरे 'एकाकीपन' की किस्मत
जीत गई है ।
हार गया वह आश
साथ की,
हार गया मेरा मन,
हार गया वह प्रेम का मोती,
'मै' अब बेचारा निर्धन ।
भीगी पलकों के पानी से,
पूरा भीग गया हूँ,
दिल तो जीत सका ना 'पागल'
नफ़रत जीत गया हूँ।
कैसे भूलूँ वह हवा सुबह की,
जो पश्चिम से आती थी,
कैसे भूलूँ ढ़लती शामें जो
जल्दी ढ़ल जाती थी ?
रोज शाम अब भी छत पर
ढ़लता सूरज तकता हूँ ,
तुम मुझसे नफ़रत कर बैठे,
मै भी कर सकता हूँ !
मै तुमसे अब दूर हुआ,
क्या योग विधाता का है ?
क्या सीखूँ? यह मन पूछे,
यह रोग सिखाता क्या है ?
अपने ही मन बन बैठा था,
मै दीपक ज्योंती का,
एक लहर ने तोड़ा रिश्ता,
सीप और मोती का ।
अब केवल इक मृत दरख़्त
मानिन्द ही कट जाऊँगा,
रह जाऊँगा राख़ की ढेरी,
मुट्ठी मे सिमट जाऊँगा ।
(सुधांशु श्रीवास्तव)

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